जब स्कूल में थे, तो कॉलेज जाने के विचारो से रोमांचित हो उठते थे. अब जब कॉलेज में हैं तो लगता है स्कूल ही बेहतर था. कम से कम अटेंडेंस का कोई झंझट तो नहीं था. बस एक 'सफरिंग फ्रॉम फीवर' वाली एप्लीकेशन से काम चल जाता था.
वैसे भी स्कूल और कॉलेज की शिक्षा पद्धति में कोई ख़ास अंतर नजर नहीं आता, बस , वहाँ अटेंडेंस सिर्फ एक बार होती थी यहाँ हर क्लास में होती है.
दरअसल इसमें पूरा दोष संस्थान का नहीं है बल्कि हिंदी सिनेमा का भी है, जिसमे कॉलेज को ऐसे मनोरंजक स्थान के रूप में प्रस्तुत किआ जाता है, जिसमे लम्बे बालों वाला हीरो अपनी हीरोइन को बाइक पे बैठाकर पूरे कॉलेज में ऐसे घुमाता है जैसे ये उसके बाप की जायदाद हो. हम भी ऐसे ही हसीन सपने लेकर कॉलेज में दाखिल होते है और ये अटेंडेंस में 75 प्रतिशत की अनिवार्यता हमारी स्वछंदता पर 'स्पीड ब्रेकर' का काम करती है.
वैसे भी स्कूल और कॉलेज की शिक्षा पद्धति में कोई ख़ास अंतर नजर नहीं आता, बस , वहाँ अटेंडेंस सिर्फ एक बार होती थी यहाँ हर क्लास में होती है.
दरअसल इसमें पूरा दोष संस्थान का नहीं है बल्कि हिंदी सिनेमा का भी है, जिसमे कॉलेज को ऐसे मनोरंजक स्थान के रूप में प्रस्तुत किआ जाता है, जिसमे लम्बे बालों वाला हीरो अपनी हीरोइन को बाइक पे बैठाकर पूरे कॉलेज में ऐसे घुमाता है जैसे ये उसके बाप की जायदाद हो. हम भी ऐसे ही हसीन सपने लेकर कॉलेज में दाखिल होते है और ये अटेंडेंस में 75 प्रतिशत की अनिवार्यता हमारी स्वछंदता पर 'स्पीड ब्रेकर' का काम करती है.
मगर कहते है न कि 'जहाँ चाह वहाँ राह' ,तो इस अटेंडेंस नामक बीमारी की भी 'प्रॉक्सी' नामक औषधि बना ली गयी. इसके अंतर्गत, एक छात्र की अनुपस्थिति में उसका मित्र उसकी अटेंडेंस लगाकर अपना मित्र-धर्म निभाता है. हमारा एक मित्र तो इस कला में बहुत निपुण है. हम उसकी इस प्रतिभा तारीफ करते है मगर उसका मानना है कि ये उसे विरासत में मिली है. दरअसल उसके पिताजी एक सरकारी अध्यापक है. वो महीने में दस दिन पढ़ाने जाते है और हाजिरी पूरे महीने कि लगवाते है.और तो और उन्हें सबसे नियमित कर्मचारी का ख़िताब भी मिल चुका है. हमारे सरकारी स्कूलों कि दयनीय स्थिति का यह भी एक कारण है. चलिए छोड़िये , हमें इससे क्या करना ये तो सरकार का काम है.
प्रॉक्सी लगाने का उद्देश्य यह नहीं होता की हमें हॉस्टल में जाकर कोई महत्वपूर्ण काम करना होता है,बस हम प्रोफेसर्स के अत्यंत पकाऊ लेक्चर्स से बचने का बहाना खोजते है. वैसे भी क्लास जाने से कोई खास लाभ होता है, ये हम जैसे परीक्षा की रात पढ़ने वाले विद्यार्थियों की समझ से तो पर है. हम जैसे छात्रों के लिए तो कंजर्वेशन ऑफ़ नॉलेज" का सिद्धांत लागू होता है. कक्षा के बाद भी हमारा ज्ञान ठीक उतना ही रहता है जितना कक्षा के पहले था. हमारे अनुसार तो इसमें समय की हानि ही होती है. इसका कारण यह भी हो सकता कि हमने उनकी बाते ध्यान से सुनने का प्रयास किया ही नहीं.
कभी-कभी तो लगता है कि अटेंडेंस की अनिवार्यता एक सोचा-समझा षडयंत्र है ताकि छात्र-शिक्षक संवाद को प्रोत्साहन मिल सके. छात्रों और प्रोफेसर्स को एक दूसरे को जानने का अवसर मिल सके. कम से कम हम इस बहाने तो प्रोफेसर्स से मिलेंगे और पूछेंगे, "सर, अटेंडेंस कहीं शॉर्ट तो नहीं!!"
Penned By: Adarsh Jain