Saturday 21 September 2019

नेकी कर, दरिया में 'मत' डाल

करी नेकी दिनों बाद तो सोचा,
फेंक आऊं दरिया में,
पुरानी नेकियों को भी चलो आज
देख आऊं दरिया में
आश्चर्य मगर कि कोई दरिया,
कहीं मिला नहीं मुझको,
अचरज ये भी तो कम नहीं,
कि फिर भी गिला नहीं मुझको
दिल ने कहा कि फिर,
आज समंदर ही चल दे
नेकी जितनी बड़ी है,
उतना अधिक जल दे।
सोचा मगर न था,
कि यूं भड़क जाएगा मुझपर,
मैं निवेदन लेकर जाऊंगा,
वो झल्लाएगा मुझपर
शांत रहने वाला समंदर,
अचानक बोला खिसियाकर

लगता है कि तुम भी, उन्हीं इंसानों के साए हो
बताओ सोचकर क्या तुम, ये नेकी, लेकर आए हो
फेंककर इसे मुझमें खुद को महान कर लोगे,
क्या सोचा कि मुझपर कोई एहसान कर दोगे
आए थे तुमसे पहले भी यहाँ कई ऐसे,
जानते हो कि सितम किए उनने कैसे
बनकर पर्यटक कभी तो कभी प्रकृति के रखवाले,
नेकियों के पैकेट उन्होंने मेरे तटों पर ही डाले

एक समय था कि जब मुझमें
कुछ पेड़ पौधे भी होते थे,
जिनको नेकियां समझ लाता था दरिया,
ये उन पापों को ढोते थे
उन पेड़ों का तो अब कोई नामोनिशां नहीं मुझमें,
सच पूछो तो एक पूरा कहकशां नहीं मुझमें
कि सदा हंसने वाली,
इन लहरों की देखो, आंखें ज़ख़्मी हैं
मुझमें रहते सभी जीवों की आज,
सांसें ज़ख़्मी हैं
इनकी अंतड़ियों में प्लास्टिक भर दिया उनने
फेफड़ों को भी इनके, धुआं कर दिया उनने
मैं उनके हर दिए को नेकी समझता रहा
पर असल में मुझे सिर्फ डर दिया उनने
डर कि मेरा अस्तित्व मिट जाएगा एकदिन,
डर कि कांपती लौ पर अंधेरा छाएगा एकदिन
डर कि लौटकर वे, फिर आएंगे एक दिन
डर कि लहरों पर मेरी, आशियाने बनाएंगे एक दिन

खबरदार मगर कि अब ऐसा होने ना पाएगा,
जो डर दिया था उनने अब उन्हें ही डराएगा,
मेरे अंदर अब गुस्से का ज्वार उठता है,
जितनी बार डरता हूं उतनी बार उठता है
समय रहते ये इशारा समझ जाओ तो अच्छा है,
अपनी नेकी लेकर वापस चले जाओ तो अच्छा है
कहीं ऐसा ना हो कि ये डर मुझमें आक्रोश बन जाए,
तुम्हारी गुस्ताखी फिर तुम्हारा ही अफसोस बन जाए।

- आदर्श जैन

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