Sunday 27 January 2019

जीवन समय की कश्ती पर..

जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए,
कितने गीत लिखे उसने, कितने मुक्तक उसने गाए,

कितने ऐसे थे उनमें जो लिखकर उसने जला दिए,
रंज-ओ-गम के मलबे में कितने नगमें मिला दिए.
उपयुक्त शब्दों के अन्वेषण में सांचे कितने टूटे थे.
आत्मकथा की पुस्तक के अनुभव कितने झूठे थे,

अंतर्भावों की अग्नि को बुझा डाले या और भड़काए,
जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए.

जगत रुपी रत्नाकर में, बवंडर अक्सर ही उठते थे,
घने अंधकारों के साये में, दम हिम्मतों के घुटते थे.
संतुलन बिगड़ा पाँवो का, फिर भी कोई आस रही
नितांत अकेले सफर में, जाने किसकी तलाश रही.

सच्चा मीत खोजे बाहर या भीतर ही आवाज़ लगाए,
जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए.

सोकर जगना, जगकर सोना, दिन ऐसे ही बीत गए,
उमंगो के रंग थे जिनमें, लम्हें वो सारे रीत गए.
जिनको अपना कह सके, अब ऐसे 'अपने' कितने हैं,
साँसें जिनकी बाकी हैं, अब ऐसे सपने कितने हैं.

मरे हुए सपनों को फिर, आग लगाए या दफनाए,
जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए,


Penned By: Adarsh Jain

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