Wednesday 2 January 2019

तुम कहते हो सुबह हुई है...

तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है?
अब तक बदली छायी हुई है, अम्बर देखो अब तक धुंधला है.

सदियों से बोझिल आँखों में, नींदें अब तक बाकी हैं,
थके सपनों की सांसों में, उम्मीदें अब तक बाकी हैं.
प्राची में रश्मि की रजनी से अब तक गहमागहमी है,
धूप अब तक छिपी बैठी है, शायद डरी है, सहमी है.

मुर्गे की अंगड़ाई को अबतक, क्या अज़ानों का सन्देश मिला है ?
तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है.

मूक परिंदों की आज़ादी पर, अबतक पिंजरा पड़ा हुआ है,
चीख ख़ामोशी की सुनने, बोलो कब कौन खड़ा हुआ है,
अब तक जुबां खुलने से पहले, जाने क्यों लड़खड़ाती है,
अभिव्यक्ति अब भी सर उठाती है पर घुटती है, मर जाती है.

सत्य की अनगिनत दलीलों पर भी, क्या न्याय अबतक पिघला है ?
तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है.

अब तक मेरे गाँव की गलियाँ, इंतज़ार सड़क का कर रही हैं,
अब तक शहीदों की विधवाएँ, दुल्हन की भाँति सँवर रही हैं.
महीनों से भूखी अन्तड़ियों को, अबतक रोटी की अभिलाषा है,
सुशासन का वादा अब तक, निरर्थक है, झूठा है, तमाशा है.

व्यर्थ के हंगामे से अब तक, क्या कोई बुनियादी मुद्दा उछला है ?
तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है.


PENNED BY : ADARSH JAIN

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