मन की अलबेली दुनिया में, अलबेले ख्यालों का बसेरा है,
इन पर न कोई ज़ोर ज़माने का, न ही कोई बस मेरा है.
भीड़ लगी है ऐसी मन में, जैसे ख्याल घूम रहे हो मेले में,
कुछ मनचले जो झुण्ड बनाकर, कुछ मनमौजी अकेले में.
नीले, पीले, लाल, गुलाबी, ख्याल सभी रंगों के हैं,
प्यार-मोहब्बत, हंसी-ठिठोली, नफरत और दंगो के हैं.
ये ऐसे सैलानी हैं, जिनके आने की कोई तिथि नहीं, कोई वक़्त नहीं,
चौकीदार मन के मेले का कठोर नही है, सख्त नहीं.
घूमने-फिरने की, जीने-मरने की इस मेले में खुली आज़ादी हैं,
कुछ ख्याल हैं, जो सच्चे वफ़ादार हैं, कुछ झूठे, फरेबी, अवसरवादी हैं.
कुछ ऐसे हैं, जो अभी देखते ही देखते बड़े हुए हैं,
कुछ ऐसे हैं जो वर्षों से जस के तस पड़े हुए हैं.
इनकी हरकतें बड़ी अजीब हैं, इनमे कोई समन्वय नहीं,
कौन, कब, कहाँ, कैसे आ जाये पहले से कुछ तय नहीं.
जैसे एक ख्याल जो बड़ा शरारती, जोखिम उठाने को उकसाता हैं,
वहीं दूसरा हैं, जो घर के बड़ों सा पहले को आँख दिखता हैं.
एक ख्याल जो बड़ा पाबंद, अनुशासन में रहना चाहता हैं,
वहीं एक हैं जो खुली हवा सा बेपरवाह बहना चाहता हैं.
एक ख्याल हैं जिसे कोई बात समझ नहीं आती है,
हर जवाब के साथ इसकी जिज्ञासा बढ़ती जाती है.
काबू कर पाना इसे, अपने आप में बड़ी चुनौती है,
वहीं एक ख्याल, जिसे हरदम बस खाने की चिंता होती है.
एक ऐसा हैं जो दिल के किसी कोने में, देवदास बना बैठा है,
मुँह फुलाकर, भिगोकर पलकें ज़िंदा लाश बना बैठा है.
वहीं दूसरा जो इसे समझाता, ये सब दुनियादारी है,
सुबह तलक उतर जाएगी, ये इश्क़ नहीं खुमारी है.
कुछ ख्याल हैं, जो मन के साज़ पर संगीत बजाते रहते हैं,
प्रचलित सी कोई धुन पकड़कर, दिनभर गाते रहते हैं.
कुछ ख्याल जो चुप-चुप रहते, सैलाब बनकर आते हैं,
यही वो ख्याल हैं, जो रात में ख्वाब बनकर आते हैं.
इन सभी ख्यालों के धागों पर नाचती ही तो मेरी ज़िंदगानी है,
कभी-कभी सोचता हूँ, ये सब हक़ीक़त हैं या महज़ एक कहानी है.WRITTEN BY : ADARSH JAIN