Saturday 15 October 2016

अटेंडेंस कहीं शॉर्ट तो नहीं!!

जब स्कूल में थे, तो कॉलेज जाने के विचारो से रोमांचित हो उठते थे. अब जब कॉलेज में हैं तो लगता है स्कूल ही बेहतर था. कम से कम अटेंडेंस का कोई झंझट तो नहीं था. बस एक 'सफरिंग फ्रॉम फीवर' वाली एप्लीकेशन से काम चल जाता था.
वैसे भी स्कूल और कॉलेज की शिक्षा पद्धति में कोई ख़ास अंतर नजर नहीं आता, बस , वहाँ अटेंडेंस सिर्फ एक बार होती थी यहाँ हर क्लास में होती है.
दरअसल इसमें पूरा दोष संस्थान का नहीं है बल्कि हिंदी सिनेमा का भी है, जिसमे कॉलेज को ऐसे मनोरंजक स्थान के रूप में प्रस्तुत किआ जाता है, जिसमे लम्बे बालों वाला हीरो अपनी हीरोइन को बाइक पे बैठाकर पूरे कॉलेज में ऐसे घुमाता है जैसे ये उसके बाप की जायदाद हो. हम भी ऐसे ही हसीन सपने लेकर कॉलेज में दाखिल होते है और ये अटेंडेंस में 75 प्रतिशत की अनिवार्यता हमारी स्वछंदता पर 'स्पीड ब्रेकर' का काम करती है.
मगर कहते है न कि 'जहाँ चाह वहाँ राह' ,तो इस अटेंडेंस नामक बीमारी की भी 'प्रॉक्सी' नामक औषधि बना ली गयी. इसके अंतर्गत, एक छात्र की अनुपस्थिति में उसका मित्र उसकी अटेंडेंस लगाकर अपना मित्र-धर्म निभाता है. हमारा एक मित्र तो इस कला में बहुत निपुण है. हम उसकी इस प्रतिभा तारीफ करते है मगर उसका मानना है कि ये उसे विरासत में मिली है. दरअसल उसके पिताजी एक सरकारी अध्यापक है. वो महीने में दस दिन पढ़ाने जाते है और हाजिरी पूरे महीने कि लगवाते है.और तो और उन्हें सबसे नियमित कर्मचारी का ख़िताब भी मिल चुका है. हमारे सरकारी स्कूलों कि दयनीय स्थिति का यह भी एक कारण है. चलिए छोड़िये , हमें इससे क्या करना ये तो सरकार का काम है.
प्रॉक्सी लगाने का उद्देश्य यह नहीं होता की हमें हॉस्टल में जाकर कोई महत्वपूर्ण काम करना होता है,बस हम प्रोफेसर्स के अत्यंत पकाऊ लेक्चर्स से बचने का बहाना खोजते है. वैसे भी क्लास जाने से कोई खास लाभ होता है, ये हम जैसे परीक्षा की रात पढ़ने वाले विद्यार्थियों की समझ से तो पर है. हम जैसे छात्रों के लिए तो कंजर्वेशन ऑफ़ नॉलेज" का सिद्धांत लागू होता है. कक्षा के बाद भी हमारा ज्ञान ठीक उतना ही रहता है जितना कक्षा के पहले था. हमारे अनुसार तो इसमें समय की हानि ही होती है. इसका कारण यह भी हो सकता कि हमने उनकी बाते ध्यान से सुनने का प्रयास किया ही नहीं.
कभी-कभी तो लगता है कि अटेंडेंस की अनिवार्यता एक सोचा-समझा षडयंत्र है ताकि छात्र-शिक्षक संवाद को प्रोत्साहन मिल सके. छात्रों और प्रोफेसर्स को एक दूसरे को जानने का अवसर मिल सके. कम से कम हम इस बहाने तो प्रोफेसर्स से मिलेंगे और पूछेंगे, "सर, अटेंडेंस कहीं शॉर्ट तो नहीं!!"
Penned By: Adarsh Jain

Sunday 10 January 2016

भूत का प्रेमपत्र

मेरी प्राण-प्यासी चुड़ैल,
तू ही बता, तुझे क्या मैं कहूँ जानेमन,
भूतनी कहूँ, पिशाचनी कहूँ या कहूँ सिर्फ डायन.
आशा करता हूँ कि तू भी किसी शमसान में बैठी होगी ,
या किसी पीपल के पेड़ से लटक रही होगी,
या फिर मेरी तरह ही इधर उधर कहीं भटक रही होगी.
अब सीधे-सीधे अपने दिल की बात कहता हूँ,
कि दिन-रात ही बस तेरे बारे में सोचता रहता हूँ.
कि जब रात काली होती है, हवेली खाली होती है,
जब सिर्फ मैं जगता, ये सारी दुनिया सोती है,
तब तू मेरे सपनो में छन-छन करती आती है,
पटक-पटक कर मेरा दरवाजा खटखटाती है,
मगर तेरी ये मधुर आवाज़ मेरे कानो में नहीं घुलती,
तेरी लाख कोशिश के बाद भी मेरी नींद नहीं खुलती.
फिर तू मेरी खातिर अपने दिल को समझाती है,
मुझे नींद से जगाने हेतु आने नाख़ून चुभाती है.
ऐसा लगता है जैसे ये मच्छर मुझे क्यूं काट रहे है,
शायद अपनी frustation मेरे साथ बाँट रहे है.
फिर सोचता हूँ कि मैं अभी किसके विचारों में खोया था,
कल रात तो मैं All-Out लगा के सोया था.
फिर जब हौले-हौले अपनी आँखे खोलता हूँ,
तुझे देखता हूँ टुकुर-टुकुर पर मुख से कुछ न बोलता हूँ,
मैं तेरे दिल में अपने लिए प्यार देखता हूँ,
तेरे हाथों  में लालटेन, आँखों में अंगार देखता हूँ.
तेरे ये बिखरे बाल और सफ़ेद साड़ी वाला लुक मुझे भा जाता है,
तेरा ये ख़ौफ़नाक रवैया मेरे दिल में समा जाता है.

ऐसे रोज मेरे ख्वाबों में, होती है तुझसे मेरी मुलाकात ,
सोचता हूँ तभी कह दूं, तुझसे अपने दिल की बात.
न जाने किससे मैं डरता हूँ, क्यूँ मैं कायर बन जाता हूँ,
पर जब बात होती है दिल की तो मैं शायर बन जाता हूँ.
“मैं तुझसे मोहब्बत बेशुमार करता हूँ,
पूरे भूत संसार में ना किया होगा किसी ने,
इतना मैं तुझे प्यार करता हूँ.
और तू मेरे दिल में कुछ इस तरह समाई है,
जैसे सरसो के खेत में भैंस घुस आयी है”

सबकी नज़रों से हूँ ओझल, बस तुझे ही मैं दिखता हूँ,
तेरी याद में ओ डायन तुझे खत ये लिखता हूँ .

– तेरा प्रिय भूत

WRITTEN BY: ADARSH JAIN

शक्कर हैं!

बातें उसकी बात नही हैं, शक्कर हैं। सोच उसे जो गज़ल कही हैं, शक्कर हैं। बाकी दुनिया की सब यादें फीकी हैं, उसके संग जो याद रही हैं, शक्कर हैं।...