होते होते फिर इक दिन, अब पागल होंगे हम दोनों,
धरती होंगे हम दोनों और बादल होंगे हम दोनों,
कब सोचा था हमने तुमने, इतनी बातें कर लेंगे,
कब सोचा था इक दूजे की आदत होंगे हम दोनों।
अपने अपने जीवन में हम दरिया जैसे होते थे,
कब सोचा था मिलकर इक दिन, सागर होंगे हम दोनों।
जब जब दुनिया की जंगों से चोटें खाकर लौटेंगे,
अपने सब घावों की पहली राहत होंगे हम दोनों।
यादों की सूखी मिट्टी पर जब जब सावन आएगा,
आंखों में पहली बारिश की आहट होंगे हम दोनों।
गर सपनों से बाहर आकर सोचें तो, डर लगता है!
डर लगता है, जब भी बिछड़े, घायल होंगे हम दोनों।
- आदर्श जैन
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