गला रुंध है, आवाज़ भारी क्यों है ,
चेहरे पर ये लाचारी क्यों है ,
आँखो ने तो सबकुछ कर ही दिया बयाँ ,
फिर बातों में दुनियादारी क्यों है.
अब तो आकाश भी चूमता है निशाँ, उसके कदमों के,
फिर धरती पर वो बेचारी क्यों हैं .
सुना है हमारे सूरज का रुतबा है, आसमाँ में बहुत
फिर देश में इतनी बेरोज़गारी क्यों है .
अभी-अभी तो माँगी हैं, दुआएँ अमन की,
फिर ज़ंग की ये तैयारी क्यों है .
दुश्मन ही सूत्रधार हैं जब, साज़िश के मेरे क़त्ल की,
फिर दोस्त इतने आभारी क्यों हैं .
इन उपद्रवी परिंदों पर तो कोई जारी नहीं करता, फ़तवे,
फिर ज़िंदगी मुश्किल हमारी क्यों है .
-आदर्श जैन
चेहरे पर ये लाचारी क्यों है ,
आँखो ने तो सबकुछ कर ही दिया बयाँ ,
फिर बातों में दुनियादारी क्यों है.
अब तो आकाश भी चूमता है निशाँ, उसके कदमों के,
फिर धरती पर वो बेचारी क्यों हैं .
सुना है हमारे सूरज का रुतबा है, आसमाँ में बहुत
फिर देश में इतनी बेरोज़गारी क्यों है .
अभी-अभी तो माँगी हैं, दुआएँ अमन की,
फिर ज़ंग की ये तैयारी क्यों है .
दुश्मन ही सूत्रधार हैं जब, साज़िश के मेरे क़त्ल की,
फिर दोस्त इतने आभारी क्यों हैं .
इन उपद्रवी परिंदों पर तो कोई जारी नहीं करता, फ़तवे,
फिर ज़िंदगी मुश्किल हमारी क्यों है .
-आदर्श जैन