क्यूँ जोड़ा जाता रहा
है,
मौत को अँधेरे
से और ज़िन्दगी को
उजाले से,
क्यूँ होती है तुलना
सदैव ही,
नेकी की सफ़ेद
से और बदी की
काले से.
साँझ ढलते ही
परिंदे घरों को लौट
जाते क्यूँ हैं,
लोग अक्सर रात
से इतना घबराते क्यूँ
हैं.
ये रात ही
तो साक्षी है,
उस बुझती-टिमटिमाती
लालटेन के विश्वास की,
जिसने झोपड़ी के असंभव अरमानों
से लेकर,
प्रतिष्ठित भवनों के सम्मानों तक
का सफर तय किया
है.
ये रात ही
तो पहचान है,
उन जुगनुओं के
अस्तित्व की,
जिनने निराशा में भी आशा
का जीवन जिया है.
ये जो सितारे
दिन की रोशनी में
नज़र आते नहीं,
उस अप्रत्यक्ष शक्ति
से हैं,
जो मुश्किलों में
ही नुमाया होती है,
ये जो चाँद
प्रकाश-पुंज सा दिख
रहा है,
और कुछ नहीं
उस सामर्थ्य का ही तो
मोती है.
गंभीरता से सोचो अगर,
तो सब नज़रिये
की बात है,
न प्रतिकूल ही
कोई समय है,
न प्रतिकूल कोई
हालात हैं,
जश्न मनाओ, कि
रात है,
जश्न मनाओ, कि
रात है!
-आदर्श जैन
Bahut hi pyaari!
ReplyDeleteSaare comments is pehle comments jaise hi hon 😘👏👏
Thanks Sir
DeleteBahut khoob, jiyo👌👌👏🏻👏🏻
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