Tuesday 6 March 2018

गुलाल


सच्चाई के फलक पर छाए हैं, झूठ के बादल घनेरे,
भेष बदलकर घूम रहे हैं दिन की रोशनी में अँधेरे,
गले मिलते हैं गर्मजोशी से, हाथ मिलाते हैं हँसकर,
मिश्री जैसी बातों में इनकी कोई भी रह जाए फँसकर.
जितने बाहर से उजले है, उतने भीतर से काले हैं,
पलकों के नीचे इनकी छलावे के जाले है.
क्या सही है क्या गलत, इसका चुनाव करूँ मैं कैसे,
उलझनों की रेशमी दुनिया में अपना बचाव करूँ में कैसे,
कैसे इनको पहचानूँ मैं, यहीं यथार्थ सवाल है,
यहाँ हर चेहरे पर नकाब है, यहाँ हर चेहरे पर गुलाल है.

जब साथ थे हम दोनों, खुशनुमा सा हर समां था,
सितारों की बस्ती में, हमारा सलोना जहाँ था,
मैं ख़ामोशी सुन लेता था, वो आँखें पढ़ लेती थी,
मैं चुप भी रहता था पर हाँ मगर, वो बातें कर लेती थी,
अक्स था मैं उसका, वो मेरी परछाई थी,
हाँ वो मेरी महफ़िल थी, हाँ वो मेरी तन्हाई थी.
समझी जिसको मोहब्बत थी, अधूरा उसका अंजाम रहा,
फर्क दोस्ती का इश्क़ से करने में, मगर मैं नाकाम रहा,
मुकम्मल इश्क़ तो हो सका, मुकम्मल मगर ये ख़याल है,
यहाँ हर चेहरे पर नकाब है, यहाँ हर चेहरे पर गुलाल है.

फूल जब सभी रंगो के हो, तब गुलदान बनता है,
धर्म, भाषाओं और परम्पराओं से हिन्दुस्तान बनता है.
धर्म के कुछ ठेकेदारों के, मगर ऐसे कोई विचार नहीं,
वे जो वकालत धर्म की करते हैं, धर्म से उनका सरोकार नहीं.
अंधविश्वास के लिबास में वे, कारोबार नफरत का चलाते हैं,
वे मुँह से राम कहते हैं, बगल में छुरी छिपाते हैं,
चुप रहने का फरमान है यहाँ, हालात कहे तो किसे कहे,
इंसानियत ही धर्म मनुज का, ये बात कहे तो किसे कहे.
रंग मज़हबी ओढ़कर, बैठा कबूतर हर डाल है,
यहाँ हर चेहरे पर नकाब है, यहाँ हर चेहरे पर गुलाल है.

हर मर्ज़ की दवा थी उनपर, मरहम भी हर घाव का था,
जी नहीं वे 'अच्छेदिन' नहीं थे, वो जो दौर था चुनाव का था.
महक हरे गुलाबी नोटों की हर फ़िज़ा में जैसे घुलती थी,
वो दौर था जब शाम सवेरे बोतलें अंग्रेजी खुलती थीं.
जुमलों पर ठहाके मारे थे, हमने वादों में विश्वास रखा था,
नवजात बेटे का भी यहाँ तक, हमने नाम विकास रखा था.
सपनों जैसे जो लगते थे, दिन अब बीत गए हैं वे,
उनकी तो अब क्या बात करें, चुनाव जो जीत गए हैं वे.
वो विकास तो हो सका, जो हुआ था, उम्र अब उसकी पाँच साल है,
यहाँ हर चेहरे पर नकाब है, यहाँ हर चेहरे पर गुलाल है.

-आदर्श जैन

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