खयालों के आंतरिक शोर से जब, मन मेरा दहलने लगा,
मैं उठकर घर की बालकनी में, इधर उधर टहलने लगा।
दरअसल मस्तिष्क की तंग गलियों में,
थे पेचीदा खयालों के कच्चे मकान जहां,
मिट्टी अब उनसे झरने लगी थी,
तालीम और तजुर्बे की ईंटों से वहां ,
एक इमारत गुमान की बनने लगी थी।
थी एक और इमारत जो अर्द्धनिर्मित,
बालकनी के सामने खड़ी,
कानूनी प्रक्रियाओं में उलझी हुई,
थी कई दिनों से निर्जन पड़ी।
कहते हैं कि उस इमारत के सूने कोनों में,
जहां अक्सर अंधेरा होता था।
सांप, बिच्छू और गिरगिटों का बसेरा होता था।
एक चिड़िया थी जो बच्चों संग,
वहां घोंसला बना के रहती थी,
बरसात में छत मिली थी उसको,
वो शुक्रिया खुदा का कहती थी।
थे सभी मेहमान प्रिय उसे, वो भी सबको प्यारी थी,
खुद में रहते सभी जीवों से, इमारत की पक्की यारी थी।
सोचो मगर, क्या होता अगर वो इमारत पूरी बनी होती,
इतनी ही सहिष्णु होती वो या अहंकार से तनी होती?
क्या अंजान ज़िंदगियों का रहना उसमें, उसे स्वीकार होता
क्या हृदय उसका तब भी इतना ही उदार होता?
इस विचार को फिर मैंने, अंतर्द्वद्व से जोड़ दिया,
अपने अंदर बनती गुमान की उस इमारत को,
अर्द्धनिर्मित ही छोड़ दिया।
- आदर्श जैन