Saturday 25 May 2019

काफी दूर निकल आए...

ये किस बेहोशी में, अंगारों पर चल आए,
हम पांवों से नहीं, यहाँ सर के बल आए।

ना खाने पर अब कोई नाराज नहीं होता,
लगता है घर से, काफी दूर निकल आए।

आईने में नया ही चेहरा दिखता है हर दफा,
इस सफर में खुद को, कितना बदल आए।

कीचड़ के ही किस्से अब सुनाते हैं सबको,
यूं तो रास्ते में हमारे, कई कमल आए।

आज ही बुला लो सब परिंदों को दावत पर,
इस डाल पर फिर, जाने कब फल आए।

शहर के इस धुएँ ने, ढंक लिया है कौमुदी को,
हम दुनिया जीते जीते, सपनों को छल आए।

- आदर्श जैन

Thursday 9 May 2019

अर्द्धनिर्मित

खयालों के आंतरिक शोर से जब, मन मेरा दहलने लगा,
मैं उठकर घर की बालकनी में, इधर उधर टहलने लगा।
दरअसल मस्तिष्क की तंग गलियों में,
थे पेचीदा खयालों के कच्चे मकान जहां,
मिट्टी अब उनसे झरने लगी थी,
तालीम और तजुर्बे की ईंटों से वहां ,
एक इमारत गुमान की बनने लगी थी।

थी एक और इमारत जो अर्द्धनिर्मित,
बालकनी के सामने खड़ी,
कानूनी प्रक्रियाओं में उलझी हुई,
थी कई दिनों से निर्जन पड़ी।
कहते हैं कि उस इमारत के सूने कोनों में,
जहां अक्सर अंधेरा होता था।
सांप, बिच्छू और गिरगिटों का बसेरा होता था।
एक चिड़िया थी जो बच्चों संग,
वहां घोंसला बना के रहती थी,
बरसात में छत मिली थी उसको,
वो शुक्रिया खुदा का कहती थी।
थे सभी मेहमान प्रिय उसे, वो भी सबको प्यारी थी,
खुद में रहते सभी जीवों से, इमारत की पक्की यारी थी।

सोचो मगर, क्या होता अगर वो इमारत पूरी बनी होती,
इतनी ही सहिष्णु होती वो या अहंकार से तनी होती?
क्या अंजान ज़िंदगियों का रहना उसमें, उसे स्वीकार होता
क्या हृदय उसका तब भी इतना ही उदार होता?

इस विचार को फिर मैंने, अंतर्द्वद्व से जोड़ दिया,
अपने अंदर बनती गुमान की उस इमारत को,
अर्द्धनिर्मित ही छोड़ दिया।

- आदर्श जैन

Monday 6 May 2019

कविता और खामोशी


ये रात की बेचैनी जैसे, कोई सवेरा ढूँढती है,
मेरी खामोशी किसी, कविता में बसेरा ढूँढती है।

उल्लास से भीगे लम्हों में, इसने वेदनाएं देखी हैं
पत्थर से निष्ठुर हृदयों में भी संवेदनाएं देखी हैं,
गुलाबों से सजे उपवन में ये, बटोर रही थी काँटे,
जलसों में जब डूबे थे सब, ये बीन रही थी सन्नाटे।

रोशन दिए के दामन में, व्याप्त अंधेरा ढूँढती है,
मेरी खामोशी किसी, कविता में बसेरा ढूँढती है।

जन्म-मृत्यु के चक्कर काटती, इस रूह की तड़पन में,
आते कल की तलाश में या बीते कल की भटकन में,
भवसागर की स्थिरता में या बेकल मन की हिलोरों में,
अन्तस्तल से उठती प्रतिध्वनियों के गहराते शोरों में।

हर पल हर क्षण ये ज़िन्दगी, साथ तेरा ढूँढती है,
मेरी खामोशी किसी, कविता में बसेरा ढूँढती है।

- आदर्श जैन



शक्कर हैं!

बातें उसकी बात नही हैं, शक्कर हैं। सोच उसे जो गज़ल कही हैं, शक्कर हैं। बाकी दुनिया की सब यादें फीकी हैं, उसके संग जो याद रही हैं, शक्कर हैं।...