ये किस बेहोशी में, अंगारों पर चल आए,
हम पांवों से नहीं, यहाँ सर के बल आए।
ना खाने पर अब कोई नाराज नहीं होता,
लगता है घर से, काफी दूर निकल आए।
आईने में नया ही चेहरा दिखता है हर दफा,
इस सफर में खुद को, कितना बदल आए।
कीचड़ के ही किस्से अब सुनाते हैं सबको,
यूं तो रास्ते में हमारे, कई कमल आए।
आज ही बुला लो सब परिंदों को दावत पर,
इस डाल पर फिर, जाने कब फल आए।
शहर के इस धुएँ ने, ढंक लिया है कौमुदी को,
हम दुनिया जीते जीते, सपनों को छल आए।
- आदर्श जैन
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