Saturday, 30 November 2019

मैं तो तुमसे कह देता हूं...

खयालों के पशोपेश में उलझीं बेचैन अंधेरी रातों को,
कल्पनाओं के अर्थ ढूंढ़तीं निरर्थक मन की बातों को,
कहते कहते जो कह न पाया अधूरे उन जज़्बातों को,
सफल रणनीतियों की सारी, असफल मुलाकातों को,

इतनी सरलता से कैसे तुम, अपने में सहती होगी ।
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी ।

भीतर की खामोशियों को, बाहर के तमाम शोरों को,
चाहत के समंदर में उठतीं उमंगों की नई हिलोरों को,
रिश्तों का संतुलन साधे, भरोसे की नाजुक डोरों को,
सूर्य की रोशनी से वंचित, जाड़े की अभागी भोरों को,

सुनकर तुम्हारी भी कभी, क्या आंख बहती होगी।
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी।

जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे, इंद्रधनुष के रंगों को,
मन की रणभूमि पर स्वयं से ही, लड़ी सारी जंगों को,
निराशा में गोते लगातीं, उम्मीदों की कटी पतंगों को,
जनता के विश्वास को छलते, बेढंगे सियासी ढंगों को,

सहेज कर अंतर में अपने, कैसे मौन रहती होगी,
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी।

- आदर्श जैन

Friday, 29 November 2019

इल्हाम

मुझे सही सही तो नहीं पता,
कि कैसी होती होगी 'मौत',
पर शायद,
इस शब्द से बेखबर,
किसी नदी के,
सागर में समा जाने जैसी होती होगी 'मौत'।
देह मिल जाती होगी अपनी 'नियति' में,
मगर आज़ाद रहती होगी,
'आत्मा'।

मुझे सही सही तो नहीं पता,
कि कैसी होती होगी 'आत्मा',
पर शायद,
किसी स्वच्छंद पंछी के,
आकाश में उड़ने जैसी होती होगी 'आत्मा'।
चाहती होगी परमसत्य में विलीन होना,
मगर धरा पर लौट आती होगी ढूंढ़ने,
'इल्हाम'।

मुझे सही सही तो नहीं पता,
कि कैसा होता होगा 'इल्हाम',
पर शायद,
तेल खत्म हो जाने के बाद भी,
किसी दिए में,
प्रकाश के रहने जैसा होता होगा 'इल्हाम'।
और फिर न कभी मौत होती होगी,
न होती होगी कभी,
धरा पर लौटने की,
'आवश्यकता'।

इल्हाम -> enlightenment

- आदर्श जैन

Friday, 15 November 2019

मुश्किल सरल हो सकती है...

मात्र मुस्कुराकर मुश्किल सरल हो सकती है,
कीचड़ बीच भी ज़िंदगी, कमल हो सकती है,

बेशक रो लेना हालातों पर, मगर फिर सोचो,
उदासी भी क्या उदासी का हल हो सकती है।

हारकर बैठने से तो यकीनन, कुछ नहीं होगा,
कोशिश करके कोशिश, सफल हो सकती है।

संघर्ष के दिनों की तो, रातें भी गज़ब होती हैं,
इक नींद तक सपनों में, खलल हो सकती है।

कुछ भी कर लो चाहे, कुछ तो कहेगी दुनिया,
ख़बरदार ये दुनिया क्यूंकि, छल हो सकती है।

तुम ध्यान से सुनते रहे तो मैं भी सुनाता रहा,
मुझे लगा ही नहीं था कि गज़ल हो सकती है।

- आदर्श जैन

शक्कर हैं!

बातें उसकी बात नही हैं, शक्कर हैं। सोच उसे जो गज़ल कही हैं, शक्कर हैं। बाकी दुनिया की सब यादें फीकी हैं, उसके संग जो याद रही हैं, शक्कर हैं।...