खयालों के पशोपेश में उलझीं बेचैन अंधेरी रातों को,
कल्पनाओं के अर्थ ढूंढ़तीं निरर्थक मन की बातों को,
कहते कहते जो कह न पाया अधूरे उन जज़्बातों को,
सफल रणनीतियों की सारी, असफल मुलाकातों को,
इतनी सरलता से कैसे तुम, अपने में सहती होगी ।
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी ।
कल्पनाओं के अर्थ ढूंढ़तीं निरर्थक मन की बातों को,
कहते कहते जो कह न पाया अधूरे उन जज़्बातों को,
सफल रणनीतियों की सारी, असफल मुलाकातों को,
इतनी सरलता से कैसे तुम, अपने में सहती होगी ।
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी ।
भीतर की खामोशियों को, बाहर के तमाम शोरों को,
चाहत के समंदर में उठतीं उमंगों की नई हिलोरों को,
रिश्तों का संतुलन साधे, भरोसे की नाजुक डोरों को,
सूर्य की रोशनी से वंचित, जाड़े की अभागी भोरों को,
सुनकर तुम्हारी भी कभी, क्या आंख बहती होगी।
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी।
जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे, इंद्रधनुष के रंगों को,
मन की रणभूमि पर स्वयं से ही, लड़ी सारी जंगों को,
मन की रणभूमि पर स्वयं से ही, लड़ी सारी जंगों को,
निराशा में गोते लगातीं, उम्मीदों की कटी पतंगों को,
जनता के विश्वास को छलते, बेढंगे सियासी ढंगों को,
सहेज कर अंतर में अपने, कैसे मौन रहती होगी,
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी।
- आदर्श जैन
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