Sunday 10 June 2018

अस्पताल

जब वक़्त की चौसर पर खेली, हर बाज़ी हारी लगने लगी,
ज़िंदगी सँवारने में ही इतना मसरूफ़ रहा,
कि कमज़ोर मौत की तैयारी लगने लगी.

जब लगा जैसे मस्तिष्क जंगल हो और नसों में आग लगने वाली हो,
जैसे वर्षो से रोक कर रखी टीस की बाल्टी, बस अभी झलकने वाली हो.

जब जवाब दुनिया के सवाली लगने लगे,
मंदिर मज़हब सब ख़याली लगने लगे,
तब ज़िंदगी और मौत का कमाल देखने,
इन मुखौटों में छिपे चेहरों का असल हाल देखने,
मैं एक रोज़ पहुँच गया अस्पताल देखने.

खुली आँखों में खूंखार सपनों जैसे,
मुझे वहाँ कई पराये नज़र आए, अपनो जैसे.

जैसे एक बूढ़ा जो दूर किसी स्ट्रेचर पर अकेला पड़ा चीख रहा था,
शायद अपनी आखिरी साँसों में ज़िन्दगी का मर्म सीख रहा था,
मुझे उसके आसपास मौत के फ़रिश्तो के पहरे दिखाई दिए,
उसकी आँखों में घाव मुझे, शरीर से गहरे दिखाई दिए.
मैंने पूछा तो उसने बताया कि,
उसके चार बेटे जो रोज़ उससे मिलने आते थे,
अहसान से ही सही पर हाल पूछ जाते थे,
उनमें से आज कोई नहीं आया,
किसी ने भी उसे आज, 'बाबा' नहीं बुलाया.
कहीं ये उस हस्ताक्षार का परिणाम तो नहीं,
जो कल उसने उन कागज़ों पर किया था,
कहीं यहीं कारण तो नहीं,
कि उसने आज दवाई का घूँट भी खून के संग पिया था.

तभी मुझे बेबसी और बेकसी में लिपटा एक अक्स नज़र आया,
पास ही के बेड पर लेटा, पहचाना-सा एक शख्स नज़र आया,
'मौत' साफ़ थी उसके घावों में, पसीनों में,
ज़िन्दगी उलझी हुई थी उसकी तारों में, मशीनों में,
बड़ी कोशिशों से बोला उसका हर लफ्ज़, खाँसी बनकर निकलता था,
दर्द इतना था कि घरवालों की आँखों से भी झलकता था.
वो वही था शायद जिसे नसीहत का जरिया बनाया जाता है,
वो वही 'मुकेश' था, जिसे फिल्मों से पहले दिखाया जाता है.

आँसुओं की इस खामोश चीत्कार के बीच, मेरा ध्यान दरवाज़े की ओर गया,
जब खून से लिपटा हुआ एक नौजवान, वहाँ से लाया गया.  
वो वही नौजवान था जो अभी-अभी सड़क पर, 'हवा' सरीका बह के निकला था,
"माँ, मैं बस अभी आया", घर से कह के निकला था.
वो वही नौजवान था, जो जल्दबाज़ी में अधूरी खाने कि प्लेट छोड़ आया था,
वो वही नौजवान था, जो जल्दबाज़ी में 'हेलमेट' छोड़ आया था.

वहाँ लोगो की चीखों में दर्द था, बेचैनी थी, लापरवाही थी,
वहाँ डॉक्टर के हाथों में 'स्टेथोस्कोप' नहीं, ज़िन्दगी में 'ज़िन्दगी' लिखने वाली स्याही थी.

किसी को डॉक्टर पर भरोसा था,
तो किसी को खुदा से आखिरी उम्मीद थी,
पर ज़िन्दगी जाने किसकी मुरीद थी .
इतने में वहाँ बिजली चली गयी और चारों तरफ अँधियारा हो गया,
तभी किसी ने कहा कि,
बेड नं. 7 पर जो था , वो जो भी था, भगवान को प्यारा हो गया.
किसके साथ है वो, वो लाश जो वहाँ उस बेड पर लेटी हुई है,
तभी किसी नर्स ने एक व्यक्ति को कुछ किलकारियाँ सौपते हुए कहा,
"मुबारक हो, बेटी हुई है."

मुझे लगा जैसे ज़िन्दगी के मसीहों ने अनूठा कोई दांव चल दिया हो,
लगा जैसे अभी-अभी रूह ने जिस्म बदल लिया हो.
पर शायद नियति के लेखकों से कहीं कोई ढील हो गयी,
ये सुनहरी सुबह जल्द ही स्याह रात में तब्दील हो गयी.

मर्दों की पूरी ज़मात को, मारे लज्जा के तार-तार होना पड़ा,
जब किसी ने कहा,
फिर किसी दामिनी को, फिर किसी बस में, शर्मसार होना पड़ा.
वो अभी- अभी इसी अस्पताल में लायी गयी है,
और ये दास्तां भी उसके किसी पुरुष मित्र द्वारा बताई गयी है.

ऐसा लगा जैसे इंसानियत के नाम पर धिक्कार,
इन दरिंदों से बढ़कर कोई खलनायक नहीं हैं,
लगा जैसे कह दूँ उस नवजात बेटी से,
"ये, दुनिया ही तेरे लायक नहीं है."

मुझे वहाँ ऐसे ही कई और मरीज़ नज़र,
कुछ ज़िन्दगी को तो कुछ मौत अजीज़ नज़र आये.
ज़िन्दगी की दिशाहीन दौड़ में, किसी के लिए ये एक पड़ाव था,
तो किसी के लिए आखिरी अंजाम था,
ना जाने क्यूँ मैं, रेशमी दुनिया के कुछ खौफनाक पहलुओं से अंजान था.
मैं अंजान था एक ऐसी जगह से, जहाँ मज़हब के दृढ़ कायदे अपनी हदों से पिघलते हैं,
जहाँ शमसान की अर्थियां और कब्रिस्तान के जनाज़े एक ही छत से निकलते हैं.

दुनिया के कई और राज़ तुम्हे पता चलेंगे, जब तुम मरीज़ों का हाल देखोगे,
कहीं कहीं पर ख़ुशी, तो कहीं पर मलाल देखोगे.
मैं गया था तो एक 'नज़्म' ले आया हूँ,

तुम्हे भी कुछ मिल जाएगा, जब तुम अस्पताल देखोगे.

PENNED BY : ADARSH JAIN

1 comment:

शक्कर हैं!

बातें उसकी बात नही हैं, शक्कर हैं। सोच उसे जो गज़ल कही हैं, शक्कर हैं। बाकी दुनिया की सब यादें फीकी हैं, उसके संग जो याद रही हैं, शक्कर हैं।...