Saturday 17 November 2018

गिरह पुरानी सुलझाते हैं..

तकरार हुई थी माना मैंने, पर संवाद रुकेगा कहाँ लिखा था,
उस रोज़ भी तेरी आँखों में, मुझे तो गुस्से वाला प्यार दिखा था,
तूने भी मेरे होठों पर कुछ बोल अधूरे देखे होंगे,
व्यर्थ विवाद से बचने के, मेरे प्रयास पूरे देखे होंगे,
फिर ये फूट की रेखा आखिर किसने, जाने क्यूँ खींची है!
तूने साँसें साधी हैं, या मैंने मुट्ठी भींची है,
मौन की खाई बीच हमारे या फिर तेरे वहम की है,
नफरत की ये दीवार क्यूँ है, क्या ये मेरे अहम् की है!
ख़ामोशी के ताले सारे, चल शब्दों से पिघलाते हैं,
गले लग जा ओ प्रिये, गिरह पुरानी सुलझाते हैं.

ईद, होली और दिवाली, आये और आकर चले गए,
सुलह के ये अवसर सारे, हमारी चुप्पियों से छले गए.
न पहल कभी की तूने, न मैं ही कभी कुछ कह पाया,
ठहरा रहा जल संबंधों का, किसी ओर न ये बह पाया.
याद तुम्हें अगर आये तो, स्मृतियाँ हमारे साथ की,
कान रखलो धड़कनों पर या नब्ज टटोलो हाथ की,
वही ठहाके और सिसकियाँ जरूर तुमको सुनाई देंगे,
पलकों ने जो संभाल रखे हैं, दृश्य वो सारे दिखाई देंगे.
बीते सब झगड़ों पर अपने, चल मिलके मुस्काते हैं,
गले लग जा ओ प्रिये, गिरह पुरानी सुलझाते हैं.

- आदर्श जैन

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बातें उसकी बात नही हैं, शक्कर हैं। सोच उसे जो गज़ल कही हैं, शक्कर हैं। बाकी दुनिया की सब यादें फीकी हैं, उसके संग जो याद रही हैं, शक्कर हैं।...