Wednesday 12 December 2018

जीत....कुशलता या विवशता ?

सुनहरी सी धूप हो या काला घना अंधकार,
है कुशलता या विवशता मेरी, यूँ जीतना हरबार.
 

मामूली सी एक बात पर, कभी कुछ दंगा जैसा हो गया,
पहलवान जैसे एक व्यक्ति से मेरा पंगा ऐसा हो गया.
कदकाठी और बल पर अपने, हाय वो कैसा अकड़ा था,
साहस देखो उस कायर का, उसने कॉलर मेरा पकड़ा था.
इतनी जिल्लत कैसे सहता, मैंने भी सीना तान दिया,
फिर हड्डी-पसली तोड़कर उसने, मुझको जीवन दान दिया.
भले जंग बाहर की हार गया पर जंग भीतर की जारी थी,
उसके प्रहार विफल करने की, मेरी हरसंभव तैयारी थी.
मन बना रणक्षेत्र मेरा, नाखून ख्यालों के निकल आये,
शांत-शांत सी साँसों में भी, लाल अंगारे जल आये.
काश उसके बल के आगे समर्पण न मैंने किया होता,
काश कि, उसकी उस चोट का, जवाब वैसा दिया होता,
काश काश के युद्ध में ही, मैंने पूरा कर लिया प्रतिकार,
है कुशलता या विवशता मेरी,  यूँ जीतना हरबार.

इन छोटी आँखों ने एक दफा, सपने बड़े देख लिए,
अपने भविष्य के माथे पर, स्वर्ण-मुकुट जड़े देख लिए,
फल बड़ा चाहा था तो परिश्रम भी बड़ा होना था,
ये वर्षों की तपस्या थी, नहीं बच्चों का खिलौना था.
अपने जीवन की ज़मीं पर मैं, बीज मेहनत के बोता था,
मैं सपनों में ही ज़िंदा था, उन्हीं में जागता सोता था
फिर नसीब ने रंग दिखाए, समय भी बड़ा क्रूर हुआ,
जितना निकट पहुँचा लक्ष्य के, उतना वो मुझसे दूर हुआ.
सुख के सारे साथियों ने ,भी साथ संकट में छोड़ दिया
पल पल पलती बाधाओं ने, हौंसला मेरा तोड़ दिया.
क्षमता की सीमा को अपनी,जल्द ही मैंने पहचान लिया,
अपनी औकात को ही फिर, अपनी हक़ीक़त मान लिया.
संतुष्टि का स्वांग रचा अब, घटाकर सपनों का आकार,
है कुशलता या विवशता मेरी, यूँ जीतना हरबार.

PENNED BY: ADARSH JAIN

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