Friday 1 February 2019

कुछ काम था, कुछ रह गया

कहाँ जा रही हैं ज़िंदगियाँ,
ये दौड़ किसके वास्ते,
फुर्सत के लम्हों में अक्सर,
सोचते हैं रास्ते.
ये दौड़ है सुकून की,
तो आराम भी होगा कहीं,
ये दौड़ ही है ज़िन्दगी,
तो मुकाम भी होगा कहीं.
ये बात है विमर्श की,
तो आओ मिलके सोचें ज़रा,
क्या है आखिर माजरा,
क्यों दौड़ रही वसुंधरा.
जद्दोजेहद क्या ये इतनी,
महज़ वक़्त बिताने की है,
ओढ़कर अँधेरा, जलाकर शामें,
फिर से दिन उगाने की है.
बात इतनी ही है अगर,
तो क्यों करें गौर कोई,
मामला है गंभीर बड़ा,
वजह होगी और कोई.
आग लगी है शहर में क्या,
क्या ये मानव डर गया है,
ज़िन्दगी के जहाज में या फिर,
पानी ख्वाइशों का भर गया है.
ऐसा है फिर अगर तो,
होगी बड़ी विडंबना,
व्यर्थ की ही कोशिशें,
व्यर्थ का ही दौड़ना.
जतन सारे किये मगर,
जहाज फिर भी ढह गया,
उम्रभर जो कहा उसने,
अंत में भी कह गया
कुछ काम था, कुछ रह गया.

 - आदर्श जैन

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