Tuesday 29 January 2019

चाँद के नजदीक कहीं

धूप ने कहा कान में,
अचानक मुझसे एक दोपहर,
चाँद के नजदीक कहीं,
होगा अक्लमंदों का शहर.
वो शहर कि जहाँ बागों में,
'समझ' के फूल खिलते होंगे,
हर दुनिया से समझदार,
आके वहाँ मिलते होंगे.
हमारी दुनिया की भी कई,
पीढ़ियाँ होंगी वहाँ,
देखो यहीं, देखो यहीं,
ज़रूर सीढ़ियाँ होंगी यहाँ.
सीढ़ियाँ कि जिनपर चढ़ना,
उम्र गुजारने जैसा हो,
ढलते समय की झुर्रियों को,
माथे पे उतारने जैसा हो.
निश्छल बचपन के मन को अगर,
भाषा छल की आने लगे,
निस्वार्थ यौवन की भूख अगर,
रोटी स्वार्थ की खाने लगे,
अगर सत्य की चुभती भोर से उठकर,
मखमली निशा में जा रहे हो,
चाँद के नजदीक कहीं मंज़िल होगी,
तुम सही दिशा में जा रहे हो.

- आदर्श जैन

Sunday 27 January 2019

जीवन समय की कश्ती पर..

जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए,
कितने गीत लिखे उसने, कितने मुक्तक उसने गाए,

कितने ऐसे थे उनमें जो लिखकर उसने जला दिए,
रंज-ओ-गम के मलबे में कितने नगमें मिला दिए.
उपयुक्त शब्दों के अन्वेषण में सांचे कितने टूटे थे.
आत्मकथा की पुस्तक के अनुभव कितने झूठे थे,

अंतर्भावों की अग्नि को बुझा डाले या और भड़काए,
जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए.

जगत रुपी रत्नाकर में, बवंडर अक्सर ही उठते थे,
घने अंधकारों के साये में, दम हिम्मतों के घुटते थे.
संतुलन बिगड़ा पाँवो का, फिर भी कोई आस रही
नितांत अकेले सफर में, जाने किसकी तलाश रही.

सच्चा मीत खोजे बाहर या भीतर ही आवाज़ लगाए,
जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए.

सोकर जगना, जगकर सोना, दिन ऐसे ही बीत गए,
उमंगो के रंग थे जिनमें, लम्हें वो सारे रीत गए.
जिनको अपना कह सके, अब ऐसे 'अपने' कितने हैं,
साँसें जिनकी बाकी हैं, अब ऐसे सपने कितने हैं.

मरे हुए सपनों को फिर, आग लगाए या दफनाए,
जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए,


Penned By: Adarsh Jain

Saturday 19 January 2019

चले आने दो इस शत्रु को भी..


क्या कहते हो कि मेरे भारत के अम्बर में काले बादल घिर आये हैं,
कि सीमा पर सिंह की खाल ओढ़कर फिर गीदड़ों के सिर आये हैं,
कि सदियों से सुलगते शोलों ने आज आग उगलना ठाना है,
कि विपत्तियों के विषैले कंठों में वही विद्रोही तराना है,
कि फिर आक्रोशित हुआ है प्रभंजन, काल की ललकार पर,
कि चुनौतियाँ और भी खड़ी, हैं प्रतीक्षा में द्वार पर,
तो जाओ जाकर कह दो सब आँधियों के दूतों से,
अब न टकराने का साहस करें माँ भारती के पूतों से,
चाहे तो देखलें आजमाकर, कितना खून हैं कितना पानी हैं
चले आने दो इस शत्रु को भी, आ देखें कितनी जवानी हैं.

क्या दुश्मन कुछ ज्यादा ही, अहंकार पर अपने झूल गया,
भूल गया वो पराजय अपनी, औकात भी अपनी भूल गया,
भूल गया कि इस चमन के फूलों में, बलिदानी खुशबू समाई है,
कि उसने जब जब आँख उठाई है, तब तब मुँह की खाई है.
कि कतरा-कतरा पवन का गाता यहाँ, देशप्रेम की गीतिका है,
हर बेटा यहाँ का विवेकानंद और हर बेटी मणिकर्णिका है,
कि इस माटी के कण कण पर लिखी, अमर शौर्य की परिभाषा है,
यहाँ गाँधी की अहिंसक वाणी हैं, तो वीर भगत सिंह की भी भाषा है.
मुसीबतों से भिड़ने की हमारी, आदत बहुत पुरानी है,
चले आने दो इस शत्रु को भी, आ देखें कितनी जवानी हैं.


परिश्रम के घोर सन्नाटों में, तुम्हें नाम हमारा सुनाई देगा,
सफलता के दूर क्षितिज तक, हस्ताक्षर हमारा दिखाई देगा,
हमारा ही उल्लेख देखोगे तुम, इतिहास में, विज्ञान में,
तपस्या की तपती ज़मीन पर, कैवल्य के आसमान में.
कल हमारा रहा स्वर्णिम और कल भी राहों में हीरे पड़े होंगे,
नई पीड़ी की अनुशंसा करने, देवता भी स्वर्ग में खड़े होंगे,
जीत की विविध पताकाओं पर, नाम केवल एक होगा,
सारा विश्व करेगा अनुमोदना, जब विजयी अभिषेक होगा.
यथार्थ है ये कल का, नहीं कल्पना की कोई कहानी है,
चले आने दो इस शत्रु को भी, देखें कितनी जवानी हैं.

- आदर्श जैन

Sunday 13 January 2019

कोई होशियारी तो है..


इश्क़ सही, इश्क़ की खुमारी तो है,
हो हो मुझे कोई बीमारी तो है.

ये अंदाज़ मसख़री का महज़ एक फरेब है,
कहीं कहीं मुझमेंकोई होशियारी तो है.

दिल को तो तुमसे हैं लाख शिकायतें मगर,
गला अबतक तुम्हारी यादों का आभारी तो है.

उस रात की आँधियों में उड़ गए सब ख्वाब मेरे,
फिर बेजान ही सही, ज़िन्दगी जारी तो है.

भले इस दुनिया में हमें मयस्सर नहीं कुछ भी,
खैर जैसी भी है, ये दुनिया हमारी तो है.

माना कि वक़्त मौत का मुअय्यन नहीं अबतक,
पर हर रोज़ थोड़ा मरने की, तैयारी तो है.

-आदर्श जैन


Wednesday 2 January 2019

तुम कहते हो सुबह हुई है...

तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है?
अब तक बदली छायी हुई है, अम्बर देखो अब तक धुंधला है.

सदियों से बोझिल आँखों में, नींदें अब तक बाकी हैं,
थके सपनों की सांसों में, उम्मीदें अब तक बाकी हैं.
प्राची में रश्मि की रजनी से अब तक गहमागहमी है,
धूप अब तक छिपी बैठी है, शायद डरी है, सहमी है.

मुर्गे की अंगड़ाई को अबतक, क्या अज़ानों का सन्देश मिला है ?
तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है.

मूक परिंदों की आज़ादी पर, अबतक पिंजरा पड़ा हुआ है,
चीख ख़ामोशी की सुनने, बोलो कब कौन खड़ा हुआ है,
अब तक जुबां खुलने से पहले, जाने क्यों लड़खड़ाती है,
अभिव्यक्ति अब भी सर उठाती है पर घुटती है, मर जाती है.

सत्य की अनगिनत दलीलों पर भी, क्या न्याय अबतक पिघला है ?
तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है.

अब तक मेरे गाँव की गलियाँ, इंतज़ार सड़क का कर रही हैं,
अब तक शहीदों की विधवाएँ, दुल्हन की भाँति सँवर रही हैं.
महीनों से भूखी अन्तड़ियों को, अबतक रोटी की अभिलाषा है,
सुशासन का वादा अब तक, निरर्थक है, झूठा है, तमाशा है.

व्यर्थ के हंगामे से अब तक, क्या कोई बुनियादी मुद्दा उछला है ?
तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है.


PENNED BY : ADARSH JAIN

शक्कर हैं!

बातें उसकी बात नही हैं, शक्कर हैं। सोच उसे जो गज़ल कही हैं, शक्कर हैं। बाकी दुनिया की सब यादें फीकी हैं, उसके संग जो याद रही हैं, शक्कर हैं।...