Friday, 29 March 2019

लड़कियाँ

अधूरे किस्सों की मुकम्मल कहानी होती हैं लड़कियाँ,
छोटी उम्र में भी, बड़ी सयानी, होती हैं लड़कियाँ.

इज़हार दिल का, आँखों तक से छिपा लेती हैं,
इश्क़ में कितनी दीवानी, होती हैं लड़कियाँ.

जानकर अंजाम भी, फँस जाती हैं जाल में,
किसी मासूम कबूतर की नादानी, होती हैं लड़कियाँ.

होती हैं जब नाराज़, तो कड़कती हैं बिजली सी,
हँसती हैं तो बारिश का पानी, होती हैं लड़कियाँ.

वैसे तो होती हैं गंभीर, किसी समंदर सी वो,
और ऐसे दरिया की मस्त रवानी, होती हैं लड़कियाँ.

माँ, बहन, बेटी, प्रेयसी, पत्नी और जाने क्या क्या,
एक ही ज़िन्दगी में कई ज़िंदगानी, होती हैं लड़कियाँ

- आदर्श जैन

Wednesday, 27 March 2019

शोहरत के गुलाम

पिछले दिनों जब किसी बड़े नेता पर,
एक महानुभाव ने जूता फेंका,
तो टीवी पर ये नज़ारा,
मेरे साथ मेरे जूते ने भी देखा.

मेरा जूता,
देखने में एकदम सीधा, सरल और भोला,
घुर्राकर ज़मीन से उछला और मुझसे बोला,
कि "हे, नालायक, निठल्ले, पढ़े लिखे गँवार,
अक्ल के अंधे, बुद्धि से लाचार,
कब खौलेगा खून तेरा, कब होगा तुझपर असर,
कब आएगी टीवी पर, ऐसे मेरी भी खबर.
अरे! चुपचाप सहने की भी अपनी मर्यादा है,
क्या ज़िन्दगी भर मुझे,
ज़मीन पर ही घिसने का इरादा है.
मैं भी आसमान में उड़ना चाहता हूँ,
हवा से बातें करके झूमना चाहता हूँ,
कभी तेरे पाँव से उतरकर,
किसी सेलेब्रिटी का चेहरा चूमना चाहता हूँ.
ज़रा सोच के देख, क्या कमाल होगा,
पूरे जूता समुदाय में, अपना ही भौकाल होगा.
पर इतना तुझसे होगा नहीं, मेरा ही फूटा नसीब है,
चल तेरे लिए मेरे पास एक दूसरी तरकीब है.
कुछ लोगों को मैंने गली के बाहर बातें करते सुना है,
कि कल एक नेता का पुतला फूँकने,
उन्होंने अपना ही मोहल्ला चुना है.
और इस महायज्ञ में आहुति देने,
वहाँ सैकड़ों लोग आएँगे,
वे न केवल पुतला फूँकेंगे,
बल्कि उसे जूतों की माला भी पहनाएँगे.
ऐसे सुनहरे अवसर को मैं कतई नहीं खोना चाहता हूँ,
किसी भी तरह बस उस माला का हिस्सा होना चाहता हूँ.
इतना भी नहीं कर पाया अगर,
तो खुद को मेरा मालिक मत कहलाना,
चुल्लू भर पानी लेना और उसमें डूब के मर जाना"

मैं जूते की चुनौती सुनकर अपना पसीना पोंछने लगा,
सर पर हाथ रखकर बस यही सोचने लगा,
कि जूते तो वही हैं, फिर आज तेवर क्यों नया है,
क्या सस्ती लोकप्रियता का ज़हर, यहाँ भी फ़ैल गया है.
ऐसा हैं अगर तो इंसानों पर खामखा ही इल्जाम हैं,
इस ज़माने में तो जूते तक शोहरत के गुलाम हैं.

- आदर्श जैन

  

Tuesday, 26 March 2019

जान पहचान !

सुना है कि खूब जानते हो मुझे,
अपना मीत,अपना दोस्त मानते हो मुझे।

तो मेरे माथे पर उभरी लकीरों में,
देख सकते हो क्या,
मेरा भाग्य और तुम्हारा ज़िक्र,
मेरे सवाल और तुम्हारी फ़िक्र।”

मेरे सीने पर कान रखकर या नब्ज़ टटोलकर,
सुन सकते हो क्या,
मेरे ख्यालों की गुफ्तगू,मेरे सपनों की आवाज़,
मेरे चेहरे पर आते जाते, तमाम रंगो के राज़।

मेरी आँखों के काले घेरों में,
पढ़ सकते हो क्या,
मेरी मुस्कानों के झूठ, मेरी चेतना का मन,
मेरे जीने का नज़रिया, मेरा अवलोकन।

मेरी कविताओं की स्याही निचोड़कर,
बना सकते हो क्या,
मेरी सारी कल्पनाओं की तस्वीर,
मेरे भावों की 'मीरा', मेरे शब्दों के 'कबीर'।

अगर नहीं,
तो मेरी शख्सियत की गहराई में तुम्हें,
खुद को उतारना अभी बाकी है,
जान तो गए हो मुझे जनाब,
पर पहचानना अभी बाकी है।

- आदर्श जैन

Monday, 18 March 2019

आज बादलों की खिड़की से...

इस करिश्माई दुनिया को आज, नए ढंग से आँकते हैं,
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.

देखें ज़रा कि हमारी धरती, लगती यहाँ से कैसी है,
किताबों में लिखा सच है सब या नानी की बातों जैसी है.
बैठकर सितारों की महफ़िल में, बातें उनकी सुनते हैं,
पूछते हैं कि हर मौसम के, ये रंग कहाँ से चुनते हैं.
चाँद का पता पूछे ज़रा कि कहाँ रहता है, कहाँ सोता है,
ये किन गलियों से नियमित आकर, सूरज रोशन होता है.

अपने जीवन की चुनरी में आज, नए अनुभव टाँकते हैं.
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.

कुछ सूत्रों को नीचे वहाँ, खबर लगी है कहीं से,
कहते हैं कि वक़्त गुजरता है तो दिखता है, यहीं से.
और सुना है कि यहीं कहीं घर है उस ऊपरवाले का,
हर समस्या का हल है उसपर और तोड़ है हर ताले का.
पशुओं से लेकर मनुष्यों तक, सबके कारखाने हैं यहाँ,
मज़हब और मुक़्क़दर तय करने के कई ठिकाने हैं यहाँ.

कान से लहू न बहे तब तक, ऊँची-ऊँची हाँकते हैं,
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.

इतनी बड़ी जो दिखती दुनिया, असल में कितनी छोटी है,
अंतरिक्ष की बड़ी थाली में जैसे, रख दी किसी ने रोटी है.
इस संदर्भ में देखें अगर तो, अपना जीवन कितना है,
मानो थाली ही सृष्टि है पूरी, तो छोटी राई के जितना है.
द्वेष और अहंकार का ऐसे में, सोचो कोई वज़ूद है क्या,
नफरत बेचकर खुशियाँ लेले, ऐसा कोई मौजूद है क्या. 

अंतर की ईर्ष्या को अपनी, उदारता से ढाँकते हैं,
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.

- आदर्श जैन 

Thursday, 14 March 2019

मैं यहाँ ही तो था मगर...

हिचकियों का ये हुजूम, उसकी यादों का कारवाँ नहीं था,
हाँ, वो अब भी जान था मेरी, जानेजाँ नहीं था,

यहाँ क्या हुआ अभी-अभी, मत पूछना मुझसे,
मैं यहाँ ही तो था मगर, यहाँ नहीं था.

सर पर हो छत, बस इतनी ही आरज़ू थी उस परिंदे की,
इस पिंजरे में छत तो मिली, पर आसमाँ नहीं था.

इस बार जब गया गाँव, तो तरक्की भी दिखी मुझे,
बस वो बूढ़े दरख़्त नहीं थे, वो मीठा कुआँ नहीं था.

इतिहास के पन्नो में खोजा जब, इंसानियत के रखवालों को,
सब कि सब फ़कीर मिले, कोई शहंशाह नहीं था.

ये सच जानने में रूह को, पूरी उम्र का वक़्त लगा,
कि जिसमें रहकर वक़्त गुजारा, वो उसका मकाँ नहीं था.

-आदर्श जैन

Saturday, 9 March 2019

जब गला छिले, तो कहना

ठंडी राख पर नफरत की गुंजाइश के फूल खिलें, तो कहना,
हर अंदाज़ तुम्हारा कुबूल है हमें, तुम्हें हो गिले, तो कहना,

जब भी उधड़े रिश्ते, तो समझौतों ने कर दी तुरपाई,
पर सलामत रहे हो वही सिलसिले, तो कहना.

तुम भी लगाओ जोर अपना, हम भी करलें कोशिशें,
ये सांप्रदायिक दीवारें हैं दोस्त, अगर हिले, तो कहना.

थे और भी दहशतगर्द यहाँ जिनके ख़ौफ़ज़दा थे मंसूबे,
वो सब गए हैं दोजख़, तुम्हे जन्नत मिले, तो कहना.

वो प्राणों का बलिदान देकर अब तक इंसाफ ढूँढ रहे हैं, तुमने अभी आवाज़ उठाई है, जब गला छिले, तो कहना.

 - आदर्श जैन

शक्कर हैं!

बातें उसकी बात नही हैं, शक्कर हैं। सोच उसे जो गज़ल कही हैं, शक्कर हैं। बाकी दुनिया की सब यादें फीकी हैं, उसके संग जो याद रही हैं, शक्कर हैं।...