Wednesday 27 March 2019

शोहरत के गुलाम

पिछले दिनों जब किसी बड़े नेता पर,
एक महानुभाव ने जूता फेंका,
तो टीवी पर ये नज़ारा,
मेरे साथ मेरे जूते ने भी देखा.

मेरा जूता,
देखने में एकदम सीधा, सरल और भोला,
घुर्राकर ज़मीन से उछला और मुझसे बोला,
कि "हे, नालायक, निठल्ले, पढ़े लिखे गँवार,
अक्ल के अंधे, बुद्धि से लाचार,
कब खौलेगा खून तेरा, कब होगा तुझपर असर,
कब आएगी टीवी पर, ऐसे मेरी भी खबर.
अरे! चुपचाप सहने की भी अपनी मर्यादा है,
क्या ज़िन्दगी भर मुझे,
ज़मीन पर ही घिसने का इरादा है.
मैं भी आसमान में उड़ना चाहता हूँ,
हवा से बातें करके झूमना चाहता हूँ,
कभी तेरे पाँव से उतरकर,
किसी सेलेब्रिटी का चेहरा चूमना चाहता हूँ.
ज़रा सोच के देख, क्या कमाल होगा,
पूरे जूता समुदाय में, अपना ही भौकाल होगा.
पर इतना तुझसे होगा नहीं, मेरा ही फूटा नसीब है,
चल तेरे लिए मेरे पास एक दूसरी तरकीब है.
कुछ लोगों को मैंने गली के बाहर बातें करते सुना है,
कि कल एक नेता का पुतला फूँकने,
उन्होंने अपना ही मोहल्ला चुना है.
और इस महायज्ञ में आहुति देने,
वहाँ सैकड़ों लोग आएँगे,
वे न केवल पुतला फूँकेंगे,
बल्कि उसे जूतों की माला भी पहनाएँगे.
ऐसे सुनहरे अवसर को मैं कतई नहीं खोना चाहता हूँ,
किसी भी तरह बस उस माला का हिस्सा होना चाहता हूँ.
इतना भी नहीं कर पाया अगर,
तो खुद को मेरा मालिक मत कहलाना,
चुल्लू भर पानी लेना और उसमें डूब के मर जाना"

मैं जूते की चुनौती सुनकर अपना पसीना पोंछने लगा,
सर पर हाथ रखकर बस यही सोचने लगा,
कि जूते तो वही हैं, फिर आज तेवर क्यों नया है,
क्या सस्ती लोकप्रियता का ज़हर, यहाँ भी फ़ैल गया है.
ऐसा हैं अगर तो इंसानों पर खामखा ही इल्जाम हैं,
इस ज़माने में तो जूते तक शोहरत के गुलाम हैं.

- आदर्श जैन

  

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