हिचकियों का ये हुजूम, उसकी यादों का कारवाँ नहीं था,
हाँ, वो अब भी जान था मेरी, जानेजाँ नहीं था,
यहाँ क्या हुआ अभी-अभी, मत पूछना मुझसे,
मैं यहाँ ही तो था मगर, यहाँ नहीं था.
सर पर हो छत, बस इतनी ही आरज़ू थी उस परिंदे की,
इस पिंजरे में छत तो मिली, पर आसमाँ नहीं था.
इस बार जब गया गाँव, तो तरक्की भी दिखी मुझे,
बस वो बूढ़े दरख़्त नहीं थे, वो मीठा कुआँ नहीं था.
इतिहास के पन्नो में खोजा जब, इंसानियत के रखवालों को,
सब कि सब फ़कीर मिले, कोई शहंशाह नहीं था.
ये सच जानने में रूह को, पूरी उम्र का वक़्त लगा,
कि जिसमें रहकर वक़्त गुजारा, वो उसका मकाँ नहीं था.
-आदर्श जैन
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