इस करिश्माई दुनिया को आज, नए ढंग से आँकते हैं,
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.
देखें ज़रा कि हमारी धरती, लगती यहाँ से कैसी है,
किताबों में लिखा सच है सब या नानी की बातों जैसी है.
बैठकर सितारों की महफ़िल में, बातें उनकी सुनते हैं,
पूछते हैं कि हर मौसम के, ये रंग कहाँ से चुनते हैं.
चाँद का पता पूछे ज़रा कि कहाँ रहता है, कहाँ सोता है,
ये किन गलियों से नियमित आकर, सूरज रोशन होता है.
अपने जीवन की चुनरी में आज, नए अनुभव टाँकते हैं.
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.
कुछ सूत्रों को नीचे वहाँ, खबर लगी है कहीं से,
कहते हैं कि वक़्त गुजरता है तो दिखता है, यहीं से.
और सुना है कि यहीं कहीं घर है उस ऊपरवाले का,
हर समस्या का हल है उसपर और तोड़ है हर ताले का.
पशुओं से लेकर मनुष्यों तक, सबके कारखाने हैं यहाँ,
मज़हब और मुक़्क़दर तय करने के कई ठिकाने हैं यहाँ.
कान से लहू न बहे तब तक, ऊँची-ऊँची हाँकते हैं,
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.
इतनी बड़ी जो दिखती दुनिया, असल में कितनी छोटी है,
अंतरिक्ष की बड़ी थाली में जैसे, रख दी किसी ने रोटी है.
इस संदर्भ में देखें अगर तो, अपना जीवन कितना है,
मानो थाली ही सृष्टि है पूरी, तो छोटी राई के जितना है.
द्वेष और अहंकार का ऐसे में, सोचो कोई वज़ूद है क्या,
नफरत बेचकर खुशियाँ लेले, ऐसा कोई मौजूद है क्या.
अंतर की ईर्ष्या को अपनी, उदारता से ढाँकते हैं,
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.
- आदर्श जैन
Sir i always love your poems , they contain some serious topic and you create an atmosphere with it , I don't know how but it just get created. I see forward reading many more poems from you , even after you leave college .
ReplyDeleteN I'm Divyansh , forgot to mention 😅
DeleteThank you very much Divyansh. And yes, 'll surely try to keep coming with more such poems.
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