Monday, 23 December 2019

Equilibrium

एक गुस्से की उम्र कितनी होती है,
अधिकतम कितनी देर तक,
किया जा सकता है क्रोध,
लगातार कितना आक्रोशित रह सकते हैं आप,
कितनी देर तक खो सकते हैं,
अपना आपा, अपना बोध।
अगर नफरत की अग्नि का हो अभाव,
किसी बाहरी भड़कावे का न हो दबाव,
तो यकीन मानिए,
अधिक देर न टिक सकेंगे इस व्यवस्था में,
वापस लौट आयेंगे अपनी मूल अवस्था में,
जैसे अग्नि के अभाव में,
शीतलता में लौट आता है गरम जल,
जैसे दबाव के न होने पर,
पुनः शिथिल हो जाती है तनी रबर।
जैसे संसार की हरेक असंतुलित वस्तु,
चाहती है लौटना अपने Equilibrium में,
वैसे ही लौट आना चाहेंगे आप,
अपने स्वभाव में,
प्रेम में, सौहार्द में, अमन में।
हो सकता है आप,
अभी न समझ पाएं ये बात,
क्यूंकि अभी आप गुस्से में हैं,
और गुस्से में विवेक मर जाता है।।

- आदर्श जैन

Saturday, 30 November 2019

मैं तो तुमसे कह देता हूं...

खयालों के पशोपेश में उलझीं बेचैन अंधेरी रातों को,
कल्पनाओं के अर्थ ढूंढ़तीं निरर्थक मन की बातों को,
कहते कहते जो कह न पाया अधूरे उन जज़्बातों को,
सफल रणनीतियों की सारी, असफल मुलाकातों को,

इतनी सरलता से कैसे तुम, अपने में सहती होगी ।
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी ।

भीतर की खामोशियों को, बाहर के तमाम शोरों को,
चाहत के समंदर में उठतीं उमंगों की नई हिलोरों को,
रिश्तों का संतुलन साधे, भरोसे की नाजुक डोरों को,
सूर्य की रोशनी से वंचित, जाड़े की अभागी भोरों को,

सुनकर तुम्हारी भी कभी, क्या आंख बहती होगी।
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी।

जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे, इंद्रधनुष के रंगों को,
मन की रणभूमि पर स्वयं से ही, लड़ी सारी जंगों को,
निराशा में गोते लगातीं, उम्मीदों की कटी पतंगों को,
जनता के विश्वास को छलते, बेढंगे सियासी ढंगों को,

सहेज कर अंतर में अपने, कैसे मौन रहती होगी,
मैं तो तुमसे कह देता हूं, तुम किससे कहती होगी।

- आदर्श जैन

Friday, 29 November 2019

इल्हाम

मुझे सही सही तो नहीं पता,
कि कैसी होती होगी 'मौत',
पर शायद,
इस शब्द से बेखबर,
किसी नदी के,
सागर में समा जाने जैसी होती होगी 'मौत'।
देह मिल जाती होगी अपनी 'नियति' में,
मगर आज़ाद रहती होगी,
'आत्मा'।

मुझे सही सही तो नहीं पता,
कि कैसी होती होगी 'आत्मा',
पर शायद,
किसी स्वच्छंद पंछी के,
आकाश में उड़ने जैसी होती होगी 'आत्मा'।
चाहती होगी परमसत्य में विलीन होना,
मगर धरा पर लौट आती होगी ढूंढ़ने,
'इल्हाम'।

मुझे सही सही तो नहीं पता,
कि कैसा होता होगा 'इल्हाम',
पर शायद,
तेल खत्म हो जाने के बाद भी,
किसी दिए में,
प्रकाश के रहने जैसा होता होगा 'इल्हाम'।
और फिर न कभी मौत होती होगी,
न होती होगी कभी,
धरा पर लौटने की,
'आवश्यकता'।

इल्हाम -> enlightenment

- आदर्श जैन

Friday, 15 November 2019

मुश्किल सरल हो सकती है...

मात्र मुस्कुराकर मुश्किल सरल हो सकती है,
कीचड़ बीच भी ज़िंदगी, कमल हो सकती है,

बेशक रो लेना हालातों पर, मगर फिर सोचो,
उदासी भी क्या उदासी का हल हो सकती है।

हारकर बैठने से तो यकीनन, कुछ नहीं होगा,
कोशिश करके कोशिश, सफल हो सकती है।

संघर्ष के दिनों की तो, रातें भी गज़ब होती हैं,
इक नींद तक सपनों में, खलल हो सकती है।

कुछ भी कर लो चाहे, कुछ तो कहेगी दुनिया,
ख़बरदार ये दुनिया क्यूंकि, छल हो सकती है।

तुम ध्यान से सुनते रहे तो मैं भी सुनाता रहा,
मुझे लगा ही नहीं था कि गज़ल हो सकती है।

- आदर्श जैन

Monday, 14 October 2019

गा रही है चांदनी...

दरमियां सारे फासले, मिटा रही है चांदनी,
चांद लिख रहा है 'प्रेम' , गा रही है चांदनी,

सच देखेगी तो सच से डर जाएगी दुनिया,
दाग़ चंद के इसलिए छिपा रही है चांदनी।

अंधेरे से न टकराकर, गिर पड़ें नन्हें सितारे,
आसमां में इक चांदनी, बिछा रही है चांदनी।

रातभर जलकर थके उन दीपकों की खातिर
नई सुबह को फिर बुलाने, जा रही है चांदनी।

तुम्हारी आंखों को सब यहां, देख रहे हैं ऐसे,
तुम्हारी आंखों से ही जैसे, आ रही है चांदनी।

- आदर्श जैन

Saturday, 12 October 2019

भौकाल तुम्हारे भाई का

तीन लोकों में मचा हुआ है, बवाल तुम्हारे भाई का,
तुम तो जानते ही हो यार, भौकाल तुम्हारे भाई का।

भूत, प्रेत, दानव, राक्षस, सब तुम्हारे भाई से डरते हैं,
कई असुर तो तुम्हारे भाई के फ्रिज की बोतलें भरते हैं।
तुम्हारा भाई हंसता है तो ऊपर सितारे ज़िंदा रहते है,
तुम्हारे भाई के रोने को दुनियावाले बरसात कहते हैं।
चांद और सूरज करते हैं चौकीदारी तुम्हारे भाई की,
निभाते हैं ये सुरक्षा की जिम्मेदारी तुम्हारे भाई की।
एक इशारे में चलते वक़्त के क़दम बदल देता है,
तुम्हारा भाई टीवी के रिमोट से मौसम बदल देता है।
भगवान फोन करके पूछता है हाल तुम्हारे भाई का,
तुम तो जानते ही हो यार, भौकाल तुम्हारे भाई का।

जुगनुओं के हाथों में तुम्हारे भाई के नाम के पर्चे हैं,
अप्सराओं की महफ़िल में तुम्हारे भाई के ही चर्चे हैं।
स्वर्ग की हरेक परी तुम्हारे भाई को उड़ के देखती है,
सड़क पर हर सुंदरी तुम्हारे भाई को मुड़ के देखती है
हर लड़की करती है मन में ख्वाहिश तुम्हारे भाई की,
कायनात में सबको ही है फरमाइश तुम्हारे भाई की।
चींटियां हो जाती है लट्टू जैसे किसी मिठाई पर,
ऐसे कन्याओं की माएं तक लट्टू है तुम्हारे भाई पर।
किस किस की मांग भरे, है सवाल तुम्हारे भाई का,
तुम तो जानते ही हो यार, भौकाल तुम्हारे भाई का।

पहले ही पेज पर छपता है हर रोज़ अख़बारों में,
हर क्षेत्र में झंडे गाड़े हैं तुम्हारे भाई के रिश्तेदारों ने।
तैरकर समंदर पार किया है तुम्हारे भाई के मामा ने,
देवों तक को उधार दिया है तुम्हारे भाई के नाना ने।
तुम्हारे भाई के चाचा पूरी फौज़ से अकेले जीते थे,
तुम्हारे भाई के पापा के संग खेले शेर और चीते थे।
तुम्हारे भाई के एक फूफा को सारा ज्ञान हासिल था,
ब्रह्मांड की खोज में तुम्हारे भाई का ताऊ शामिल था।
हर कोई हैरान है देखकर, कमाल तुम्हारे भाई का,
तुम तो जानते ही हो यार, भौकाल तुम्हारे भाई का।

- आदर्श जैन

Friday, 11 October 2019

नया तरीका खोज लिया मैंने...

इस अफ्साने का भी अंजाम सोच लिया मैंने,
छलकने से पहले आंखों को पोंछ लिया मैंने,

मैं एक ख्वाब को हकीकत मानने ही वाला था,
ठीक हुआ जो नींद में खुद को नोंच लिया मैंने।

मुझे याद नहीं तुम्हारा दिया ज़ख्म कौनसा था,
इसीलिए सारे ज़ख्मों को ही खरोंच लिया मैंने।

ज़ुबां खोलता तो बात खामखां और बढ़ जाती,
शिकवे बहुत थे पर होठों को दबोच लिया मैंने।

बिना उलझनों के तो ज़िंदगी बेरंग हो चली थी,
उलझने को फिर नया तरीका खोज लिया मैंने।

- आदर्श जैन

Monday, 7 October 2019

एकतरफा आशिक़ का जनाज़ा

सारी प्रेम कथाएं हार गईं,
एक आशिक के जुनून से,
एकतरफा आशिक़ी में जब उसने,
सैकड़ों खत लिखे अपने खून से
खतों का जवाब न आने पर भी,
कभी उसका जुनून नहीं हारा,
अफसोस मगर एक दिन,
खून की कमी से मर गया, बेचारा!

उसके दोस्तों ने फिर फैसला किया,
कि न मातम होगा, न बैंड बाजा होगा,
आशिक़ की रूह को सुकून मिले,
कुछ ऐसा उसका जनाज़ा होगा।
इसीलिए कब्रिस्तान के रास्ते में,
बेवफ़ाई भरे शेर सुनाएंगे,
और जहां उसकी मोहब्बत का घर है,
जनाज़ा उसी गली से ले जाएंगे।
न ऐसा आशिक़, न ऐसे दोस्त,
कभी किसी ने देखे होंगे,
रास्ते में जनाज़ा वहीं रुकेगा,
जहां देसी शराब के ठेके होंगे।

तो जून की कड़कड़ाती धूप में,
बोतल छिपाए कुर्ते के भीतर,
कंधा देने वाले चारों दोस्त,
मदहोश थे जाम पीकर।
तभी एक दोस्त ने फरमाया,
नशे में चूर होकर शेर सुनाया,
कि,
तेरे इश्क़ ने ग़ालिब हमें निकम्मा कर डाला,
तेरे इश्क़ ने ग़ालिब हमें निकम्मा कर डाला,
अंग्रेज़ी की शैम्पेन बोतल थे हम,
हमें देसी दारू का खंबा कर डाला।
दूसरा दोस्त बोला इसके बाद,
बाकी सब ने कहा इरशाद, इरशाद!
वह बोला,
अर्ज़ किया है, अर्ज़ किया है,
अर्ज़ किया है, अर्ज़ किया है,
आलम तो ये है जनाब,
वो खंबा खरीदने के लिए भी,
कर्ज लिया है, कर्ज लिया है।
तभी गुज़रा जनाज़ा,
मुर्दे के crush की गली से,
तीसरा दोस्त बोला बड़ी बेकली से,
हजरात, हजरात, हजरात,
न कोई जनाज़ा है ये, न कोई बारात,
इसे तुम जागरूकता का अभियान समझना,
पर आशिक़ी को न दोस्तो, आसान समझना,
आशिकों को अक्सर मोहब्बत में भरम रहता है,
यारो! इस गली में ही वो बेवफा सनम रहता है
और दोस्तो, हमेशा ध्यान रहे,
आशिक़ी से ऊपर तुम्हारी जान रहे,
क्यूंकि इस सफर में वही ज़िंदा बच पाए,
जो सख्त रहे, सतर्क रहे, सावधान रहे।

इससे पहले चौथा दोस्त भी कुछ सुनाता,
उन चारों ने एक बाइक से जनाजा ठोक दिया,
और वहीं चौराहे पर खड़े एक ट्रैफिक हवलदार ने,
उनका रास्ता रोक लिया।

वह बोला कि इतना लहराते हुए किधर जा रहे हो?
कमाल है, चार ड्राइवर एक ही सवारी ले जा रहे हो।
हेलमेट भी नहीं पहना है और दारू भी पी रक्खी है,
कागज भी नहीं होंगे, ये बात भी बिल्कुल पक्की है।
चलो, अब तुम्हें भी सड़क का कानून पता लगेगा,
ये जनाज़ा साइड में लगाओ, चालान कटेगा।

चालान की राशि सुनते ही, चारों का नशा उतर गया,
मुर्दा भी जनाजे से उठ गया, कि इतना डर गया।
उसने फिर एक जरूरी राज खोला,
वो उठते ही बोला,
कि एकतरफा आशिक़ी में,
हर कदम पर ही जुर्माना भरना है,
ये कोई साधारण आशिक़ी नहीं है,
यहां जीने से महंगा तो मरना है।

- आदर्श जैन

Wednesday, 25 September 2019

गांधी के चश्मों में...

कहते है आशिक़, अक्सर अपनी कसमों में,
कि चांद ले आऊंगा गोरी, तेरे इन क़दमों में,

सुना है चाँद नदारद है, आजकल फलक से,
कहीं कैद तो नहीं वो, शायरों की कलमों में|

जानते हो उस मोहब्बत पे कितने तारे टूटे थे,
जो तमाशा बनी है, आजकल इन मजमों में।

मर जाने के बाद भी अपना इश्क़ अमर रहेगा,
तुमको ही लिखा है मैंने अपनी सारी नज़्मों में।

इस जटिल दुनिया से, मेरा बचपन अच्छा था,
खामखा उलझ गया मैं, बेकार सारी रस्मों में।

मुंतज़िर हूं कि ये ख्वाब एकदिन हकीकत हो,
मैनें स्वच्छ भारत देखा था, गांधी के चश्मों में।

- आदर्श जैन

Saturday, 21 September 2019

नेकी कर, दरिया में 'मत' डाल

करी नेकी दिनों बाद तो सोचा,
फेंक आऊं दरिया में,
पुरानी नेकियों को भी चलो आज
देख आऊं दरिया में
आश्चर्य मगर कि कोई दरिया,
कहीं मिला नहीं मुझको,
अचरज ये भी तो कम नहीं,
कि फिर भी गिला नहीं मुझको
दिल ने कहा कि फिर,
आज समंदर ही चल दे
नेकी जितनी बड़ी है,
उतना अधिक जल दे।
सोचा मगर न था,
कि यूं भड़क जाएगा मुझपर,
मैं निवेदन लेकर जाऊंगा,
वो झल्लाएगा मुझपर
शांत रहने वाला समंदर,
अचानक बोला खिसियाकर

लगता है कि तुम भी, उन्हीं इंसानों के साए हो
बताओ सोचकर क्या तुम, ये नेकी, लेकर आए हो
फेंककर इसे मुझमें खुद को महान कर लोगे,
क्या सोचा कि मुझपर कोई एहसान कर दोगे
आए थे तुमसे पहले भी यहाँ कई ऐसे,
जानते हो कि सितम किए उनने कैसे
बनकर पर्यटक कभी तो कभी प्रकृति के रखवाले,
नेकियों के पैकेट उन्होंने मेरे तटों पर ही डाले

एक समय था कि जब मुझमें
कुछ पेड़ पौधे भी होते थे,
जिनको नेकियां समझ लाता था दरिया,
ये उन पापों को ढोते थे
उन पेड़ों का तो अब कोई नामोनिशां नहीं मुझमें,
सच पूछो तो एक पूरा कहकशां नहीं मुझमें
कि सदा हंसने वाली,
इन लहरों की देखो, आंखें ज़ख़्मी हैं
मुझमें रहते सभी जीवों की आज,
सांसें ज़ख़्मी हैं
इनकी अंतड़ियों में प्लास्टिक भर दिया उनने
फेफड़ों को भी इनके, धुआं कर दिया उनने
मैं उनके हर दिए को नेकी समझता रहा
पर असल में मुझे सिर्फ डर दिया उनने
डर कि मेरा अस्तित्व मिट जाएगा एकदिन,
डर कि कांपती लौ पर अंधेरा छाएगा एकदिन
डर कि लौटकर वे, फिर आएंगे एक दिन
डर कि लहरों पर मेरी, आशियाने बनाएंगे एक दिन

खबरदार मगर कि अब ऐसा होने ना पाएगा,
जो डर दिया था उनने अब उन्हें ही डराएगा,
मेरे अंदर अब गुस्से का ज्वार उठता है,
जितनी बार डरता हूं उतनी बार उठता है
समय रहते ये इशारा समझ जाओ तो अच्छा है,
अपनी नेकी लेकर वापस चले जाओ तो अच्छा है
कहीं ऐसा ना हो कि ये डर मुझमें आक्रोश बन जाए,
तुम्हारी गुस्ताखी फिर तुम्हारा ही अफसोस बन जाए।

- आदर्श जैन

Friday, 20 September 2019

किसका फोन आता है..

कहां रहता है ध्यान तेरा, खुद से क्या बुदबुदाता है,
ये बिन बताए आजकल तू किससे मिलने जाता है,

कितना भी छिपा लूं इश्क़ मगर मां पूछ ही लेती है,
कौन है वो लड़की, बार बार किसका फोन आता है।

दिमाग कहता है कि तुम्हारा कोई ख़याल ना लाऊं,
दिमाग की सुनते ही जाने क्यूं ये दिल बैठ जाता है।

जाने कैसे लोग इस शहर में शब-ए-हिज्र काटते होंगे,
शुक्र है मेरा दिल मुझे वस्ल की कहानियां सुनाता है।

-Adarsh Jain

Monday, 9 September 2019

हर रस्ता मुश्किल लगता है...

कंधों पर उम्मीदों का बस्ता बोझिल लगता है,
चलने से पहले तो हर रस्ता मुश्किल लगता है,

प्रतिकूल लहरों पर जब सवार सांसे चलती हैं,
लाख दूरी होकर भी करीब साहिल लगता है।

चंद क्षणिक हारों से इतने भी नाउम्मीद ना हो,
तुमसे ही देश का रोशन मुस्तकबिल लगता है।

तुम्हारी तरह ही हूबहू मुझसे झगड़ा करता है,
कोई तो है मुझमें जो तुममें शामिल लगता है।

मर्द कहकर खुद को औरत पर हाथ उठाता है,
कोई भी हो पर मुझको, वो बुझदिल लगता है।

लक्ष्य से वो मुझको अक्सर भटकाता रहता है,
ये मन मुझे अपने सपनों का कातिल लगता है।

-आदर्श जैन

कहानी लेकर आए हो...

होठों पर चुप्पी, आंखों में पानी लेकर आए हो,
तुम आज फिर चेहरे पर हैरानी लेकर आए हो

अबतक सुनाए हुए तुम्हारे सारे किस्से झूठे थे,
सच बोलो न फिर कोई कहानी लेकर आए हो।

इस बाज़ार में तो चालाकी के सिक्के चलते हैं,
तुम बड़े नादान हो जो नादानी लेकर आए हो।

जूझते हुए जब मुश्किलों से काट दी है पूरी उम्र,
तब कहते हो कि थोड़ी, आसानी लेकर आए हो।

प्यासी थी जब ये धरती तब तुम कहां थे, बादल!
बाढ़ आयी है अब तो पूरी रवानी लेकर आए हो।

वही सुकून खोजते कई पीढ़ियां हुई हैं रुखसत,
जिसे खोजने तुम पूरी जिंदगानी लेकर आए हो।

- आदर्श जैन

Sunday, 1 September 2019

चार लोग

कहीं दूर देश चला गया है,
या फिर रब से ही राब्ता हो गया है,
'चार लोग क्या कहेंगे' की टोली का एक सदस्य,
आज अचानक ही लापता हो गया है।
उसे ढूंढने की खातिर बाकी 'तीन' लोगों ने,
मदद के लिए हाथ उठाए हैं,
और उसकी सभी विशेषताओं के साथ,
उसके पोस्टर पूरे शहर में लगवाए हैं।
तो चलिए इस मुहिम में,
मैं भी अपना फर्ज़ निभाता हूं,
उसकी कुछ शारीरिक एवं चारित्रिक विशेषताएं,
आपको भी बताता हूं।

वो आते जाते लोगों से अक्सर,
फिजूल सवाल करता है,
दिखने में सामान्य है,
पर कई दफा रंग बदलता है।
आंख- कान बिल्कुल चौकन्ने,
और नाक औसत से बड़ी है,
वो बेवजह समय पूछ लेता है,
भले उसके हाथ में भी घड़ी है।
उंगलियां थोड़ी लम्बी हैं,
शायद आपने भी पहचानी हों,
दूसरों की ज़िंदगी में ताकि,
हस्तक्षेप करने में आसानी हो।
अंदर से बेहद चंट है,
मगर दिखने में भोला होगा,
साधारण आंखों से नहीं दिखेगा
पर कांधे पे उसके झोला होगा।
उस झोले में उसने,
कई किताबें भर रखीं हैं,
दुनियाभर के लोगों की उनमें,
'चुगलियां' जमा कर रखीं हैं।
वो भोजन नहीं करता,
बस बातों से ही पेट भर लेता है।
खबरदार रहें,
क्यूंकि किसी भी अंजान व्यक्ति से वो,
किसी की भी चुगली कर देता है।
जैसे,
"फलाने घर में प्रॉपर्टी को लेकर,
दोनों भाइयों में ही टक्कर है,
पता है वो पड़ोस वाली बिजली का,
उस बादल के साथ चक्कर है।
देखा वो कॉलोनी की नई लड़की के,
कपड़े कितने छोटे हैं।
सुना है वो धनीराम ब्याज में डूबा है,
अरे, उसके तो धंधे ही खोटे हैं।
और वो भागचंद का भी,
तो नया धंधा नहीं चला,
अब तुम्हीं बताओ यार,
'मॉडलिंग' भी कोई पेशा है भला।
जब से संतोष की शादी हुई है,
उसके घर में ही रहता उसका साला है,
मुझे तो लगता है यार,
कि दाल में ही कुछ काला है।
अरे एक वो शर्माजी का बेटा है,
जो अमेरिका में नौकरी करता है,
एक अपने वर्माजी का पप्पू है,
जो घर में ही खर्राटे भरता है,
सुना है कि कमलेश 'ड्रग्स' बेचता है,
तभी पुलिस को उसकी तलाश रहती है,
'26' की हो गई है चौबेजी की 'कम्मो',
बताओ अब तक घर में बैठी है।"

इस तरह के किसी व्यक्ति से अगर आप,
बस, ट्रेन या किसी सार्वजनिक स्थान पर मिल जाएं,
तो कृपया करके हमें ना बताएं।
आप चार दूसरे लोगों को बताएं,
वे और चार लोगों को बताएंगे,
बस इसी तरीके से हम,
उसका पता जानना चाहेंगे।

हमारी मदद करने वालों का,
'अखिल विश्व चार लोग क्या कहेंगे महासंघ' द्वारा,
एक इंटरव्यू लिया जाएगा,
और जिसकी भी चुगलियों में दम होगा,
उसे इस समिति में शामिल होने का,
एक मौका दिया जाएगा।
तो आप भी शुरू कर दीजिए उसे ढूंढ़ना,
हो सकता है आपकी तकदीर में ही,
कोई कमल खिल जाए,
और ऐसे ख्यातिप्राप्त संस्थान में,
शामिल होने का सुनहरा मौका,
क्या पता आपको ही मिल जाए।

- आदर्श जैन

Thursday, 29 August 2019

घड़ी


उजाले के शोर में तो सुनाई नहीं देती,
पर रात की खामोशी में गुनगुनाती है।
सोचा है कभी,
कि दीवार पर लगी ये घड़ी,
आखिर क्या कहना चाहती है।
इन सुइयों की टिक टिक में,
ज़रूर, कोई तो राज़ है।
मुझे तो लगता है, ये मेरे
अस्तित्व की ही आवाज़ है।
वो 'सेकंड' की सुई जो भाग रही है तेज़ी से,
मुझे अपने संघर्षों जैसी लगती है,
हर लम्हा आगे बढ़ती हुई,
बाकी सबसे बेखबर,
अपनी धुन में चलती है।
और वो धीमी चलती हुई 'घंटे' की सुई,
शायद मेरे सपनों को दर्शाती है,
समय के चक्र पर रेंगते हुए,
हर बार सेकंड की सुई से टकराती है।
सबके बीच है ज़िन्दगी मेरी,
जो 'मिनट' की सुई की भांति है,
बाकी दोनों सुइयों के बीच किसी तरह,
बस सामंजस्य बैठाती है।
मैं सोचता हूं,
एक उम्र बाद जब ये घड़ी बंद होती होगी,
तो सबसे पहले क्या मरता होगा?
जीवन, संघर्ष या सपने!

- आदर्श जैन

Tuesday, 27 August 2019

हाथ मिलाया जाता है..

दाने फेंके जाते हैं फिर जाल बिछाया जाता है,
मासूम परिंदों को यहां ऐसे ही फंसाया जाता है,

इस शहर में आए हो तो ये दस्तूर भी जान लो,
यहां कत्ल से पहले भी हाथ मिलाया जाता है।

शायद हैरत हो जानकर तुम्हें पर इस मुल्क में,
प्रेम पूजा जाता है मगर इश्क़ छिपाया जाता है।

भले सड़क नहीं है गांव में मेरे पर इतना तो है,
हर जाते मुसाफिर को पानी पिलाया जाता है।

क्या कहा था तुमने कि अब से भुला दोगे मुझे,
क्या तुमसे कभी कोई वादा निभाया जाता है।

निकालकर दिल से मुझे क्यूं मेरी यादें रखी हैं,
वक़्त के बटुए से मेरा बेकार किराया जाता है।

- आदर्श जैन

Sunday, 18 August 2019

तरक्की

इस कुदरत की दास्तां है ये,
मेरे तस्सवुर की कहानी नहीं,
कहते हैं सदियों पहले,
एक जंगल था यहीं कहीं।
एक चिड़िया थी जो किसी पेड़ पर,
घोंसला बना कर रहती थी,
जीवन का काफी शोर था यहां,
एक नदी बगल से बहती थी।
उस चिड़िया ने सोचा एक दिन,
चलो दुनिया घूम कर आते हैं,
ये जंगल कितना छोटा है,
चलो चांद चूम कर आते हैं।
फिर ऐसी ऊंची उसने उड़ान भरी,
कि निशां गगन में खोते गए,
वो जिन बादलों से होकर गुजरी,
वो बादल धुआं होते गए।
जब चांद चूमकर लौटी वो,
तो सोचा घर को लौट चलें,
ये उड़ान थी बहुत थकानभरी,
चलो उसी घोंसले में आराम करें।
उस धुंए की तीरगी में मगर,
वो जंगल कहीं खो गया,
सिर्फ इमारतें थी अब हर तरफ,
वो जंगल भी इमारत हो गया।
हवा नहीं थी अब सन्नाटे थे,
उस नदी की जगह सड़क पक्की थी,
कुछ लोग अब भी कहते हैं,
वो चिड़िया ही 'तरक्की' थी।

- आदर्श जैन

Saturday, 27 July 2019

मेरा ख़याल आता होगा...

अपना गम आखिर किसको बताता होगा,
ये दरिया अपने आंसू, कहां छुपाता होगा।

 मेरे तसव्वुर में बस उसके खयाल बसते है,
क्या उसे भी कभी मेरा खयाल आता होगा।

कैसे हम दोनों इक दूजे की आंखे पढ़ लेते हैं,
पिछले जन्म का हमारा, कोई तो नाता होगा।

कहते हैं इस मिट्टी में इक अलग सी खुशबू है,
कोई फ़कीर यहां अपनी चादर बिछाता होगा।

खुद को खोकर दूजे को पाना आता है उसको,
वो मोहब्बत और इबादत बराबर निभाता होगा।

उसकी आंखो में हमेशा, सूरज रोशन रहते हैं,
वो अपनी पलकों पर रोज़ ख़्वाब सजाता होगा।

- आदर्श जैन

Friday, 19 July 2019

संभव है !


टूटी मन की वीणा पर आशाओं के स्वर,
फिर गीत कोई सजा पाए तो संभव है।
चोटिल सपनों की पीड़ाओं को ये आंसू,
आंखो की प्यास बना पाए तो संभव है।

जब हौंसलों को लगें डराने अनजानी राहें,
विपत्तियां हों खड़ी जब सामने फैलाकर बाहें,
जब दूर तलक ये नज़र सिर्फ अंधियारे देखे,
भाग्य में हों लिखे जब प्रतिकूल विधि के लेखे।

सहमी हिम्मतों से किया तब हर प्रयास,
नई कोशिशों को जगा पाए तो संभव है।
चोटिल सपनों की पीड़ाओं को ये आंसू,
आंखो की प्यास बना पाए तो संभव है।

जब तेज़ समय की आंधियों में दम घुटने लगे,
परिश्रम की नीतियों से जब भरोसा उठने लगे,
जब सांसे हर फैसले का जोखिम नापने लगें,
आगे बढ़ने से पहले ही जब पांव कांपने लगें।

नसों में मचलती तब कोई विकल चीख,
प्राणों में अंगार जला पाए तो संभव है।
चोटिल सपनों की पीड़ाओं को ये आंसू,
आंखो की प्यास बना पाए तो संभव है।

- आदर्श जैन

Friday, 14 June 2019

आवाज़ गूंजती रहती है...

भाग्यलेखों से तन्हाई मेरी, अक्सर जूझती रहती है,
इन बेतरतीब रेखाओं में बस, तुम्हें ढूंढती रहती है।

मैं  सोचता हूं ये धड़कनें, आखिर क्या गाती रहती हैं,
तुम चली जाती हो पर तुम्हारी, आवाज़ गूंजती रहती है।

एक दिल है मेरा जो तुम्हारी आंखे तकता रहता है,
एक आंखे है तुम्हारी जिन्हें हमेशा, बात सूझती रहती है।

कौन है वो कि जिसकी खातिर मैं खोया खोया रहता हूं,
मेरे ख़्वाब पूछते रहते हैं, मेरी नींद पूछती रहती है।

- आदर्श जैन

Saturday, 1 June 2019

रात गुज़र गई होगी...

इन टूटे फूटे सितारों की तो तक़दीर संवर गई होगी,
तुम्हारी ही खुशबू होगी जो अंबर में बिखर गई होगी,

तुम्हें जो देखा फिर इन आँखों को होश ही कहाँ रहा,
ये चाँद निहारती रही होंगी और रात गुज़र गई होगी।

वो नींद जो हर शाम चक्कर काटती थी मेरी पलकों के,
आज किस ठाँव रुकी होगी, आज किसके घर गई होगी।

वे नासमझ है जो पूछ रहे हैं कारण, बेमौसम बरसात का,
अरे, मेरी दास्तां सुनकर, बादलों की आंख भर गई होगी।

- आदर्श जैन

Saturday, 25 May 2019

काफी दूर निकल आए...

ये किस बेहोशी में, अंगारों पर चल आए,
हम पांवों से नहीं, यहाँ सर के बल आए।

ना खाने पर अब कोई नाराज नहीं होता,
लगता है घर से, काफी दूर निकल आए।

आईने में नया ही चेहरा दिखता है हर दफा,
इस सफर में खुद को, कितना बदल आए।

कीचड़ के ही किस्से अब सुनाते हैं सबको,
यूं तो रास्ते में हमारे, कई कमल आए।

आज ही बुला लो सब परिंदों को दावत पर,
इस डाल पर फिर, जाने कब फल आए।

शहर के इस धुएँ ने, ढंक लिया है कौमुदी को,
हम दुनिया जीते जीते, सपनों को छल आए।

- आदर्श जैन

Thursday, 9 May 2019

अर्द्धनिर्मित

खयालों के आंतरिक शोर से जब, मन मेरा दहलने लगा,
मैं उठकर घर की बालकनी में, इधर उधर टहलने लगा।
दरअसल मस्तिष्क की तंग गलियों में,
थे पेचीदा खयालों के कच्चे मकान जहां,
मिट्टी अब उनसे झरने लगी थी,
तालीम और तजुर्बे की ईंटों से वहां ,
एक इमारत गुमान की बनने लगी थी।

थी एक और इमारत जो अर्द्धनिर्मित,
बालकनी के सामने खड़ी,
कानूनी प्रक्रियाओं में उलझी हुई,
थी कई दिनों से निर्जन पड़ी।
कहते हैं कि उस इमारत के सूने कोनों में,
जहां अक्सर अंधेरा होता था।
सांप, बिच्छू और गिरगिटों का बसेरा होता था।
एक चिड़िया थी जो बच्चों संग,
वहां घोंसला बना के रहती थी,
बरसात में छत मिली थी उसको,
वो शुक्रिया खुदा का कहती थी।
थे सभी मेहमान प्रिय उसे, वो भी सबको प्यारी थी,
खुद में रहते सभी जीवों से, इमारत की पक्की यारी थी।

सोचो मगर, क्या होता अगर वो इमारत पूरी बनी होती,
इतनी ही सहिष्णु होती वो या अहंकार से तनी होती?
क्या अंजान ज़िंदगियों का रहना उसमें, उसे स्वीकार होता
क्या हृदय उसका तब भी इतना ही उदार होता?

इस विचार को फिर मैंने, अंतर्द्वद्व से जोड़ दिया,
अपने अंदर बनती गुमान की उस इमारत को,
अर्द्धनिर्मित ही छोड़ दिया।

- आदर्श जैन

Monday, 6 May 2019

कविता और खामोशी


ये रात की बेचैनी जैसे, कोई सवेरा ढूँढती है,
मेरी खामोशी किसी, कविता में बसेरा ढूँढती है।

उल्लास से भीगे लम्हों में, इसने वेदनाएं देखी हैं
पत्थर से निष्ठुर हृदयों में भी संवेदनाएं देखी हैं,
गुलाबों से सजे उपवन में ये, बटोर रही थी काँटे,
जलसों में जब डूबे थे सब, ये बीन रही थी सन्नाटे।

रोशन दिए के दामन में, व्याप्त अंधेरा ढूँढती है,
मेरी खामोशी किसी, कविता में बसेरा ढूँढती है।

जन्म-मृत्यु के चक्कर काटती, इस रूह की तड़पन में,
आते कल की तलाश में या बीते कल की भटकन में,
भवसागर की स्थिरता में या बेकल मन की हिलोरों में,
अन्तस्तल से उठती प्रतिध्वनियों के गहराते शोरों में।

हर पल हर क्षण ये ज़िन्दगी, साथ तेरा ढूँढती है,
मेरी खामोशी किसी, कविता में बसेरा ढूँढती है।

- आदर्श जैन



Thursday, 25 April 2019

तलाश

"जब तक मैं खुद को महसूस कर पाता, मैं एक कैफे में बैठा हुआ था | शायद किसी कहानी के अंत की तलाश मुझे यहाँ लाई थी | मैं लोगों से नज़रें मिलाकर उनके जिए हुए में झाँकने की कोशिश करता और उसका प्रतिबिम्ब कागज़ पर उकेर देता | ऐसे मैंने वहाँ ढेरों प्रतिबिम्ब बनाये मगर किसी की भी शक्ल मेरी कहानी के मुख्य किरदार से नहीं मिलती थी | मेरी कहानी का मुख्य किरदार एक लेखक था जो अपनी कहानियों में समाज को आईना दिखाने के लिए मशहूर था | उचित अंत न खोज पाने की असमर्थता से उठने वाले अब सभी ख़याल यहाँ आने के ख़याल को कोसने लगे | तभी टीवी पर एक ख़बर दिखाई जाती है कि देश का एक जाना माना उद्योगपति काफी लोगों के पैसे लेकर विदेश फरार हो गया है | मैं असहज महसूस करने लगा और वहाँ से उठकर सड़क पर किसी चोर की तरह बेतहाशा भागने लगा | मुझे कहानी का अंत मिल गया था |"

- आदर्श जैन 

Monday, 8 April 2019

मुश्किल होगी पर जाना होगा

अब यहाँ से किस ओर ले जाने,
फिर आयी है ये भोर जगाने,
नई चुनौतियों की किताब लेकर,
फिर नई मंज़िल का ख्वाब लेकर,
पहनकर घड़ी सामने खड़ी है,
बड़ी जल्दी है, बड़ी हड़बड़ी है.

मुझे भी अब नई उड़ानें भरने,
फिर दुनिया को साबित करने,
नींद से खुद को जगाना होगा,
मुश्किल होगी पर जाना होगा.

इन पुरानी राहों पर चलते चलते,
फिसलते, गिरते, उठते, संभलते,
जाने कब हस्ती जवान हो गयी,
हर पत्थर से मेरी पहचान हो गयी,
मैंने देखा है इनका कोना-कोना,
इन्हें पता है मेरा, हँसना-रोना.

मगर अब नए कर्त्तव्य निभाने,
उन नई राहों से रिश्ता बनाने,
इनसे मोह अपना छुड़ाना होगा,
मुश्किल होगी पर जाना होगा.

कुछ ऐसे मुझको यहाँ यार मिले,
पराये लोगों में अपने किरदार मिले,
जो माहौल जमा दें हर महफ़िल में,
जो घर बना लें सबके दिल में,
ज़िन्दगी की शक्ल में त्यौहार हैं वो,
मेरा अपना अनोखा परिवार हैं वो.

सबको अब अलविदा कहने,
एकांत नई दुनिया में रहने,
बावरे इस मन को मनाना होगा,
मुश्किल होगी पर जाना होगा.

मेरी जितनी कहानी जितने किस्से हैं,
अधिकतर सब यहीं के हिस्से हैं,
हर अंदाज़ जो भरा है मुझमें,
रंग यहीं का बिखरा है मुझमें,
होगा ज़िक्र जब भी, किसी बात में,
आएगी हँसी, आँसुओ के साथ में.

बाँधकर अब यादें, एक गठरी में
बस जाने किसी नई नगरी में,
कदमों को अपने उठाना होगा,
मुश्किल होगी पर जाना होगा.

- आदर्श जैन

Monday, 1 April 2019

बस इज़हार नहीं करती..

सोचता था कि सोचती होगी वो भी, बस इज़हार नहीं करती,
शायद इसीलिए मेरी किसी गुस्ताख़ी से इनकार नहीं करती,

फिर जब बताया उसे हाल-ए-दिल अपना, तो उसने ये कहा,
कि तुम्हें पसंद तो करती हूँ मैं बहुत, मगर प्यार नहीं करती.

ये तजुर्बा है इश्क़ के रोग का जो बताया है हमें मरीजों ने,
कि इश्क़ साला बीमारी ही ऐसी है जो बीमार नहीं करती.

सोचती हो बिछड़कर, कि जीना मुहाल होगा मेरा, तो सुन लो ,
कि धड़कती हो तुम अब भी दिल में, पर झंकार नहीं करती.

बस इस एक धुरी पर झूलती रहीं जनता की तमाम उम्मीदें,
सरकार कहती रही वो नहीं करते, वो कहते रहे सरकार नहीं करती.
 
-आदर्श जैन 

Friday, 29 March 2019

लड़कियाँ

अधूरे किस्सों की मुकम्मल कहानी होती हैं लड़कियाँ,
छोटी उम्र में भी, बड़ी सयानी, होती हैं लड़कियाँ.

इज़हार दिल का, आँखों तक से छिपा लेती हैं,
इश्क़ में कितनी दीवानी, होती हैं लड़कियाँ.

जानकर अंजाम भी, फँस जाती हैं जाल में,
किसी मासूम कबूतर की नादानी, होती हैं लड़कियाँ.

होती हैं जब नाराज़, तो कड़कती हैं बिजली सी,
हँसती हैं तो बारिश का पानी, होती हैं लड़कियाँ.

वैसे तो होती हैं गंभीर, किसी समंदर सी वो,
और ऐसे दरिया की मस्त रवानी, होती हैं लड़कियाँ.

माँ, बहन, बेटी, प्रेयसी, पत्नी और जाने क्या क्या,
एक ही ज़िन्दगी में कई ज़िंदगानी, होती हैं लड़कियाँ

- आदर्श जैन

Wednesday, 27 March 2019

शोहरत के गुलाम

पिछले दिनों जब किसी बड़े नेता पर,
एक महानुभाव ने जूता फेंका,
तो टीवी पर ये नज़ारा,
मेरे साथ मेरे जूते ने भी देखा.

मेरा जूता,
देखने में एकदम सीधा, सरल और भोला,
घुर्राकर ज़मीन से उछला और मुझसे बोला,
कि "हे, नालायक, निठल्ले, पढ़े लिखे गँवार,
अक्ल के अंधे, बुद्धि से लाचार,
कब खौलेगा खून तेरा, कब होगा तुझपर असर,
कब आएगी टीवी पर, ऐसे मेरी भी खबर.
अरे! चुपचाप सहने की भी अपनी मर्यादा है,
क्या ज़िन्दगी भर मुझे,
ज़मीन पर ही घिसने का इरादा है.
मैं भी आसमान में उड़ना चाहता हूँ,
हवा से बातें करके झूमना चाहता हूँ,
कभी तेरे पाँव से उतरकर,
किसी सेलेब्रिटी का चेहरा चूमना चाहता हूँ.
ज़रा सोच के देख, क्या कमाल होगा,
पूरे जूता समुदाय में, अपना ही भौकाल होगा.
पर इतना तुझसे होगा नहीं, मेरा ही फूटा नसीब है,
चल तेरे लिए मेरे पास एक दूसरी तरकीब है.
कुछ लोगों को मैंने गली के बाहर बातें करते सुना है,
कि कल एक नेता का पुतला फूँकने,
उन्होंने अपना ही मोहल्ला चुना है.
और इस महायज्ञ में आहुति देने,
वहाँ सैकड़ों लोग आएँगे,
वे न केवल पुतला फूँकेंगे,
बल्कि उसे जूतों की माला भी पहनाएँगे.
ऐसे सुनहरे अवसर को मैं कतई नहीं खोना चाहता हूँ,
किसी भी तरह बस उस माला का हिस्सा होना चाहता हूँ.
इतना भी नहीं कर पाया अगर,
तो खुद को मेरा मालिक मत कहलाना,
चुल्लू भर पानी लेना और उसमें डूब के मर जाना"

मैं जूते की चुनौती सुनकर अपना पसीना पोंछने लगा,
सर पर हाथ रखकर बस यही सोचने लगा,
कि जूते तो वही हैं, फिर आज तेवर क्यों नया है,
क्या सस्ती लोकप्रियता का ज़हर, यहाँ भी फ़ैल गया है.
ऐसा हैं अगर तो इंसानों पर खामखा ही इल्जाम हैं,
इस ज़माने में तो जूते तक शोहरत के गुलाम हैं.

- आदर्श जैन

  

Tuesday, 26 March 2019

जान पहचान !

सुना है कि खूब जानते हो मुझे,
अपना मीत,अपना दोस्त मानते हो मुझे।

तो मेरे माथे पर उभरी लकीरों में,
देख सकते हो क्या,
मेरा भाग्य और तुम्हारा ज़िक्र,
मेरे सवाल और तुम्हारी फ़िक्र।”

मेरे सीने पर कान रखकर या नब्ज़ टटोलकर,
सुन सकते हो क्या,
मेरे ख्यालों की गुफ्तगू,मेरे सपनों की आवाज़,
मेरे चेहरे पर आते जाते, तमाम रंगो के राज़।

मेरी आँखों के काले घेरों में,
पढ़ सकते हो क्या,
मेरी मुस्कानों के झूठ, मेरी चेतना का मन,
मेरे जीने का नज़रिया, मेरा अवलोकन।

मेरी कविताओं की स्याही निचोड़कर,
बना सकते हो क्या,
मेरी सारी कल्पनाओं की तस्वीर,
मेरे भावों की 'मीरा', मेरे शब्दों के 'कबीर'।

अगर नहीं,
तो मेरी शख्सियत की गहराई में तुम्हें,
खुद को उतारना अभी बाकी है,
जान तो गए हो मुझे जनाब,
पर पहचानना अभी बाकी है।

- आदर्श जैन

Monday, 18 March 2019

आज बादलों की खिड़की से...

इस करिश्माई दुनिया को आज, नए ढंग से आँकते हैं,
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.

देखें ज़रा कि हमारी धरती, लगती यहाँ से कैसी है,
किताबों में लिखा सच है सब या नानी की बातों जैसी है.
बैठकर सितारों की महफ़िल में, बातें उनकी सुनते हैं,
पूछते हैं कि हर मौसम के, ये रंग कहाँ से चुनते हैं.
चाँद का पता पूछे ज़रा कि कहाँ रहता है, कहाँ सोता है,
ये किन गलियों से नियमित आकर, सूरज रोशन होता है.

अपने जीवन की चुनरी में आज, नए अनुभव टाँकते हैं.
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.

कुछ सूत्रों को नीचे वहाँ, खबर लगी है कहीं से,
कहते हैं कि वक़्त गुजरता है तो दिखता है, यहीं से.
और सुना है कि यहीं कहीं घर है उस ऊपरवाले का,
हर समस्या का हल है उसपर और तोड़ है हर ताले का.
पशुओं से लेकर मनुष्यों तक, सबके कारखाने हैं यहाँ,
मज़हब और मुक़्क़दर तय करने के कई ठिकाने हैं यहाँ.

कान से लहू न बहे तब तक, ऊँची-ऊँची हाँकते हैं,
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.

इतनी बड़ी जो दिखती दुनिया, असल में कितनी छोटी है,
अंतरिक्ष की बड़ी थाली में जैसे, रख दी किसी ने रोटी है.
इस संदर्भ में देखें अगर तो, अपना जीवन कितना है,
मानो थाली ही सृष्टि है पूरी, तो छोटी राई के जितना है.
द्वेष और अहंकार का ऐसे में, सोचो कोई वज़ूद है क्या,
नफरत बेचकर खुशियाँ लेले, ऐसा कोई मौजूद है क्या. 

अंतर की ईर्ष्या को अपनी, उदारता से ढाँकते हैं,
चलो ज़मीन से उठकर हम, बादलों से झाँकते हैं.

- आदर्श जैन 

Thursday, 14 March 2019

मैं यहाँ ही तो था मगर...

हिचकियों का ये हुजूम, उसकी यादों का कारवाँ नहीं था,
हाँ, वो अब भी जान था मेरी, जानेजाँ नहीं था,

यहाँ क्या हुआ अभी-अभी, मत पूछना मुझसे,
मैं यहाँ ही तो था मगर, यहाँ नहीं था.

सर पर हो छत, बस इतनी ही आरज़ू थी उस परिंदे की,
इस पिंजरे में छत तो मिली, पर आसमाँ नहीं था.

इस बार जब गया गाँव, तो तरक्की भी दिखी मुझे,
बस वो बूढ़े दरख़्त नहीं थे, वो मीठा कुआँ नहीं था.

इतिहास के पन्नो में खोजा जब, इंसानियत के रखवालों को,
सब कि सब फ़कीर मिले, कोई शहंशाह नहीं था.

ये सच जानने में रूह को, पूरी उम्र का वक़्त लगा,
कि जिसमें रहकर वक़्त गुजारा, वो उसका मकाँ नहीं था.

-आदर्श जैन

Saturday, 9 March 2019

जब गला छिले, तो कहना

ठंडी राख पर नफरत की गुंजाइश के फूल खिलें, तो कहना,
हर अंदाज़ तुम्हारा कुबूल है हमें, तुम्हें हो गिले, तो कहना,

जब भी उधड़े रिश्ते, तो समझौतों ने कर दी तुरपाई,
पर सलामत रहे हो वही सिलसिले, तो कहना.

तुम भी लगाओ जोर अपना, हम भी करलें कोशिशें,
ये सांप्रदायिक दीवारें हैं दोस्त, अगर हिले, तो कहना.

थे और भी दहशतगर्द यहाँ जिनके ख़ौफ़ज़दा थे मंसूबे,
वो सब गए हैं दोजख़, तुम्हे जन्नत मिले, तो कहना.

वो प्राणों का बलिदान देकर अब तक इंसाफ ढूँढ रहे हैं, तुमने अभी आवाज़ उठाई है, जब गला छिले, तो कहना.

 - आदर्श जैन

Tuesday, 26 February 2019

सरहद

ज़रा देखें तो सरहद पर आज हुआ क्या है,
बौराई लपटें कैसी हैं, ये लहराता धुआँ क्या है,
फ़िज़ा में दौड़ रही नयी महक किसकी है,
हवा ने आखिर, ऐसा छुआ क्या है.
पूछता हूँ यहाँ, तो ये कहते हैं लोग,
कि उन घाटियों में भी वहाँ, तैनात रहते हैं लोग.
कहते हैं कि सपनों पर हमारे हिफाज़त उनकी है,
हमारी बेख़ौफ़ नींदों के पीछे शहादत उनकी है.
मातृभूमि की सुरक्षा का वचन निभाते हैं वो
पर्वतों को भी हौंसलों से झुकाते हैं वो.
वो ही हैं जो रातों के अँधेरे में उजाले बनाते हैं,
वो ही हैं जो दिन में सूरज को रौशनी दिखाते हैं.
सोचता हूँ तभी कि वो धुआँ कहीं,
वहाँ ज़मीन पर उतरा आसमाँ तो नहीं,
संभव है कि उसी धुंध में छिपे फरिश्तों के साये हो,
उन वीरों के चरण छूने आज ज़मीं पर आये हों.
और लपटें जो उठ रही हैं बौराई सी दूर वहाँ,
जल तो नहीं रहा कहीं, शत्रु का गुरूर वहाँ.
क्या ये महक नयी, लायी है पैगाम कोई,
सरहद से फिर तो नहीं गया, शिवधाम कोई.
देखता हूँ फिर उधर कि अब हो रही बरसात है,
नयी सुबह के गीत सुनाती कल की ज़ख़्मी रात है,
नियति पूछती है ऐसे में, बताओ तुम्हारी दुआ क्या है,
ज़रा देखें तो सरहद पर आज हुआ क्या है.

- आदर्श जैन

Friday, 1 February 2019

कुछ काम था, कुछ रह गया

कहाँ जा रही हैं ज़िंदगियाँ,
ये दौड़ किसके वास्ते,
फुर्सत के लम्हों में अक्सर,
सोचते हैं रास्ते.
ये दौड़ है सुकून की,
तो आराम भी होगा कहीं,
ये दौड़ ही है ज़िन्दगी,
तो मुकाम भी होगा कहीं.
ये बात है विमर्श की,
तो आओ मिलके सोचें ज़रा,
क्या है आखिर माजरा,
क्यों दौड़ रही वसुंधरा.
जद्दोजेहद क्या ये इतनी,
महज़ वक़्त बिताने की है,
ओढ़कर अँधेरा, जलाकर शामें,
फिर से दिन उगाने की है.
बात इतनी ही है अगर,
तो क्यों करें गौर कोई,
मामला है गंभीर बड़ा,
वजह होगी और कोई.
आग लगी है शहर में क्या,
क्या ये मानव डर गया है,
ज़िन्दगी के जहाज में या फिर,
पानी ख्वाइशों का भर गया है.
ऐसा है फिर अगर तो,
होगी बड़ी विडंबना,
व्यर्थ की ही कोशिशें,
व्यर्थ का ही दौड़ना.
जतन सारे किये मगर,
जहाज फिर भी ढह गया,
उम्रभर जो कहा उसने,
अंत में भी कह गया
कुछ काम था, कुछ रह गया.

 - आदर्श जैन

Tuesday, 29 January 2019

चाँद के नजदीक कहीं

धूप ने कहा कान में,
अचानक मुझसे एक दोपहर,
चाँद के नजदीक कहीं,
होगा अक्लमंदों का शहर.
वो शहर कि जहाँ बागों में,
'समझ' के फूल खिलते होंगे,
हर दुनिया से समझदार,
आके वहाँ मिलते होंगे.
हमारी दुनिया की भी कई,
पीढ़ियाँ होंगी वहाँ,
देखो यहीं, देखो यहीं,
ज़रूर सीढ़ियाँ होंगी यहाँ.
सीढ़ियाँ कि जिनपर चढ़ना,
उम्र गुजारने जैसा हो,
ढलते समय की झुर्रियों को,
माथे पे उतारने जैसा हो.
निश्छल बचपन के मन को अगर,
भाषा छल की आने लगे,
निस्वार्थ यौवन की भूख अगर,
रोटी स्वार्थ की खाने लगे,
अगर सत्य की चुभती भोर से उठकर,
मखमली निशा में जा रहे हो,
चाँद के नजदीक कहीं मंज़िल होगी,
तुम सही दिशा में जा रहे हो.

- आदर्श जैन

Sunday, 27 January 2019

जीवन समय की कश्ती पर..

जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए,
कितने गीत लिखे उसने, कितने मुक्तक उसने गाए,

कितने ऐसे थे उनमें जो लिखकर उसने जला दिए,
रंज-ओ-गम के मलबे में कितने नगमें मिला दिए.
उपयुक्त शब्दों के अन्वेषण में सांचे कितने टूटे थे.
आत्मकथा की पुस्तक के अनुभव कितने झूठे थे,

अंतर्भावों की अग्नि को बुझा डाले या और भड़काए,
जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए.

जगत रुपी रत्नाकर में, बवंडर अक्सर ही उठते थे,
घने अंधकारों के साये में, दम हिम्मतों के घुटते थे.
संतुलन बिगड़ा पाँवो का, फिर भी कोई आस रही
नितांत अकेले सफर में, जाने किसकी तलाश रही.

सच्चा मीत खोजे बाहर या भीतर ही आवाज़ लगाए,
जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए.

सोकर जगना, जगकर सोना, दिन ऐसे ही बीत गए,
उमंगो के रंग थे जिनमें, लम्हें वो सारे रीत गए.
जिनको अपना कह सके, अब ऐसे 'अपने' कितने हैं,
साँसें जिनकी बाकी हैं, अब ऐसे सपने कितने हैं.

मरे हुए सपनों को फिर, आग लगाए या दफनाए,
जीवन समय की कश्ती पर बैठा ये हिसाब लगाए,


Penned By: Adarsh Jain

Saturday, 19 January 2019

चले आने दो इस शत्रु को भी..


क्या कहते हो कि मेरे भारत के अम्बर में काले बादल घिर आये हैं,
कि सीमा पर सिंह की खाल ओढ़कर फिर गीदड़ों के सिर आये हैं,
कि सदियों से सुलगते शोलों ने आज आग उगलना ठाना है,
कि विपत्तियों के विषैले कंठों में वही विद्रोही तराना है,
कि फिर आक्रोशित हुआ है प्रभंजन, काल की ललकार पर,
कि चुनौतियाँ और भी खड़ी, हैं प्रतीक्षा में द्वार पर,
तो जाओ जाकर कह दो सब आँधियों के दूतों से,
अब न टकराने का साहस करें माँ भारती के पूतों से,
चाहे तो देखलें आजमाकर, कितना खून हैं कितना पानी हैं
चले आने दो इस शत्रु को भी, आ देखें कितनी जवानी हैं.

क्या दुश्मन कुछ ज्यादा ही, अहंकार पर अपने झूल गया,
भूल गया वो पराजय अपनी, औकात भी अपनी भूल गया,
भूल गया कि इस चमन के फूलों में, बलिदानी खुशबू समाई है,
कि उसने जब जब आँख उठाई है, तब तब मुँह की खाई है.
कि कतरा-कतरा पवन का गाता यहाँ, देशप्रेम की गीतिका है,
हर बेटा यहाँ का विवेकानंद और हर बेटी मणिकर्णिका है,
कि इस माटी के कण कण पर लिखी, अमर शौर्य की परिभाषा है,
यहाँ गाँधी की अहिंसक वाणी हैं, तो वीर भगत सिंह की भी भाषा है.
मुसीबतों से भिड़ने की हमारी, आदत बहुत पुरानी है,
चले आने दो इस शत्रु को भी, आ देखें कितनी जवानी हैं.


परिश्रम के घोर सन्नाटों में, तुम्हें नाम हमारा सुनाई देगा,
सफलता के दूर क्षितिज तक, हस्ताक्षर हमारा दिखाई देगा,
हमारा ही उल्लेख देखोगे तुम, इतिहास में, विज्ञान में,
तपस्या की तपती ज़मीन पर, कैवल्य के आसमान में.
कल हमारा रहा स्वर्णिम और कल भी राहों में हीरे पड़े होंगे,
नई पीड़ी की अनुशंसा करने, देवता भी स्वर्ग में खड़े होंगे,
जीत की विविध पताकाओं पर, नाम केवल एक होगा,
सारा विश्व करेगा अनुमोदना, जब विजयी अभिषेक होगा.
यथार्थ है ये कल का, नहीं कल्पना की कोई कहानी है,
चले आने दो इस शत्रु को भी, देखें कितनी जवानी हैं.

- आदर्श जैन

Sunday, 13 January 2019

कोई होशियारी तो है..


इश्क़ सही, इश्क़ की खुमारी तो है,
हो हो मुझे कोई बीमारी तो है.

ये अंदाज़ मसख़री का महज़ एक फरेब है,
कहीं कहीं मुझमेंकोई होशियारी तो है.

दिल को तो तुमसे हैं लाख शिकायतें मगर,
गला अबतक तुम्हारी यादों का आभारी तो है.

उस रात की आँधियों में उड़ गए सब ख्वाब मेरे,
फिर बेजान ही सही, ज़िन्दगी जारी तो है.

भले इस दुनिया में हमें मयस्सर नहीं कुछ भी,
खैर जैसी भी है, ये दुनिया हमारी तो है.

माना कि वक़्त मौत का मुअय्यन नहीं अबतक,
पर हर रोज़ थोड़ा मरने की, तैयारी तो है.

-आदर्श जैन


Wednesday, 2 January 2019

तुम कहते हो सुबह हुई है...

तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है?
अब तक बदली छायी हुई है, अम्बर देखो अब तक धुंधला है.

सदियों से बोझिल आँखों में, नींदें अब तक बाकी हैं,
थके सपनों की सांसों में, उम्मीदें अब तक बाकी हैं.
प्राची में रश्मि की रजनी से अब तक गहमागहमी है,
धूप अब तक छिपी बैठी है, शायद डरी है, सहमी है.

मुर्गे की अंगड़ाई को अबतक, क्या अज़ानों का सन्देश मिला है ?
तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है.

मूक परिंदों की आज़ादी पर, अबतक पिंजरा पड़ा हुआ है,
चीख ख़ामोशी की सुनने, बोलो कब कौन खड़ा हुआ है,
अब तक जुबां खुलने से पहले, जाने क्यों लड़खड़ाती है,
अभिव्यक्ति अब भी सर उठाती है पर घुटती है, मर जाती है.

सत्य की अनगिनत दलीलों पर भी, क्या न्याय अबतक पिघला है ?
तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है.

अब तक मेरे गाँव की गलियाँ, इंतज़ार सड़क का कर रही हैं,
अब तक शहीदों की विधवाएँ, दुल्हन की भाँति सँवर रही हैं.
महीनों से भूखी अन्तड़ियों को, अबतक रोटी की अभिलाषा है,
सुशासन का वादा अब तक, निरर्थक है, झूठा है, तमाशा है.

व्यर्थ के हंगामे से अब तक, क्या कोई बुनियादी मुद्दा उछला है ?
तुम कहते हो सुबह हुई है पर दिनकर बोलो कहाँ निकला है.


PENNED BY : ADARSH JAIN

शक्कर हैं!

बातें उसकी बात नही हैं, शक्कर हैं। सोच उसे जो गज़ल कही हैं, शक्कर हैं। बाकी दुनिया की सब यादें फीकी हैं, उसके संग जो याद रही हैं, शक्कर हैं।...